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1947 से पहले डा. अम्बेडकर ने कहा था वैसा ही है मीडिया

““किसी मकसद को ध्यान में न रखकर निष्पक्ष समाचार देना, समाज के हित में सार्वजनिक नीति का दृष्टिकोण प्रस्तुत करना , बिना किसी भय के बड़े से बड़े और ऊंचे से ऊंचे व्यक्ति के दोष व गलत मार्ग का पर्दाफाश करना अब भारत में पत्रकारिता का पहला और महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं माना जाता ष अब नायक -पूजा ही उसका प्रमुख कर्तव्य बन गया है। ”डा. भीम राव अम्बेडकर भारत में मीडिया के व्यवहार को लेकर काफी दुखी और चितिंत रहते थे। इतने ज्यादा कि उनके सामने मुख्यधारा की मीडिया के बारे में तल्ख टिप्पणी करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता था। डा. अम्बेडकर ने ठीक वहीं कहा था जिस तरह के मीडिया के बारे में फिलहाल आमतौर पर टिप्पणी की जाती है ।

उन्होंने कहा है कि “ समाचारों के अंतर्गत सनसनी फैलाना, गैर जिम्मेदाराना उन्माद भड़काना और जिम्मेदार लोगों के दिमाग में गैर जिम्मेदारों की भावनाओं को भरने की कोशिश में लगे रहना ही आज की पत्रकारिता हैं। ”उन्होंने बताया कि“ लार्ड सेल्सबरी ने नार्थ क्लिप की पत्रकारिता के बारे में कहा था कि वह दफ्तर के बाबूओं के लिए दप्तर के बाबूओं द्वारा लिखी जाती है। भारतीय पत्रकारिता में भी यह सब है , पर उसमें यह भी शामिल किया जा सकता है कि वह ढोल बजाने वाले लड़कों के द्वारा अपने नायकों का महिमा मंडन करने के लिए लिखी जाती है।” लार्ड नार्थ क्लिफ के बारे में कहा जाता है कि उसने लोकतंत्र की और लोकतंत्र के लिए पत्रकारिता की जगह लोकतंत्र के अधिकारों का इस्तेमाल कर मालिकों के हितों की पत्रकारिता का मॉडल तैयार किया था। डा. अम्बेडकर ने मीडिया के बारे में जो बातें कहीं हैं उसका संदर्भ आज के राजनीतिक संदर्भों से भी मेल खाता हैं। उन्होंने उस समय कहा कि भारतीय राजनीति आधुनिक होने के बजाय हिन्दुत्व का अंग बन गई है और उसका इतना अधिक व्यवसायीकरण हो गया है कि उसका दूसरा नाम भ्रष्टाचार हो गया है।

गौर तलब है कि डा, अम्बेडकर की मीडिया के बारे में राय उनकी टिप्पणी मे राजनीति के हिन्दुत्व के अंग होने और मीडिया द्वारा ढोल बजाने और नायकों का महिमा मंडन करने के संदर्भ के साथ जुड़कर सामने आई हैं। डा. अम्बेडकर ने समय समय पर भारत के मीडिया के बारे में टिप्पणी की है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने मुख्यधारा के मीडिया में सम्मानित किए जाने वाले उदाहरणों की चर्चा नहीं की। उन्होंने कहा कि नायक पूजा के प्रचार के लिए इतनी बेदर्दी से देश के हितों का कभी बलिदान नहीं किया गया। लेकिन कुछ सम्मानित अपवाद भी है । किन्तु वे आवाजें इतनी कम हैं कि कभी सुनी नहीं गई। उन्होंने मीडिया पर अपनी टिप्पणी में इसके कारणों की तरफ भी स्पष्ट इशारा किया है।

उन्होंने बताया कि “अपने वर्चस्व को स्थापित करने में राजनीतिकों ने बड़े उद्योगपतियों का सहारा लिया है।” उन्हें दुखी होकर कहना पड़ा कि “ भारत में पत्रकारिता कभी एक पेशा हुआ करता था पर अब यह एक व्यापार बन गया है। अब तो साबून बनाने के सिवा इसका कोई और नैतिक कार्य नहीं रह गया है। यह स्वंय को जनता का एक जिम्मेदार मार्गदर्शक नहीं मानती है।”

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