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जनप्रतिनिधियों के व्यक्तिगत विचारों की मीडिया में कैसे पहचान करें

अनिल चमड़िया 

समाचार माध्यमों में संविधान के अनुसार स्थापित संस्थाओं– यथा विधायिका, कार्यपालिका व न्यायापालिका से संबंधित सूचनाएं दी जाती है। इन समाचार माध्यमों का इस्तेमाल सरकारी संस्थाएं व नागरिक बतौर पाठक, दर्शक व श्रोता करते हैं। एक तरह से समाचार माध्यम सरकार और नागरिकों के बीच संवाद के माध्यम समझे जा सकते हैं। सरकारी संस्थाएं नागरिकों के लिए आवश्यक सूचनाएं समाचार माध्यम से देती है। मोटे तौर पर सरकार की दो प्रकार की सूचनाएं होती हैं। एक तो वे सूचनाएं होती है जो कि बिना किसी भुगतान के दी जाती है और दूसरी वे सूचनाएं होती है जिन्हें विज्ञापन के रूप में दिया जाता है और उसके लिए सरकार भुगतान करती है। लेकिन संविधान के अनुसार स्थापित संस्थाओं से जुड़ी ऐसी बहुतेरी सामग्री होती है जिन्हें समाचार माध्यमों में जगह दी जाती है और समाचार माध्यम नागरिकों के बीच उस सूचना को जरूरी समझते हैं। इस तरह हम यह देखते हैं कि किसी भी समाचार माध्यम में आधिकारिक और गैर-आधिकारिक दोनों तरह की सूचनाएं होती है। एक पाठक, दर्शक व श्रोता के सामने यह एक तरह की जटिल स्थिति होती है कि वह समाचार माध्यम में किस तरह से आधिकारिक और गैर-आधिकारिक सूचना व सामग्री की पहचान करें। तथ्यों की तलाश करें। लेकिन यह जटिलता तब और बढ़ जाती है जब एक आधिकारिक संस्था के प्रतिनिधि द्वारा आधिकारिक पद की जिम्मेदारियों के निर्वहन के दौरान कोई सूचना दी जाती है या विचार व्यक्त किए जाते हैं लेकिन वह आधिकारिक दस्तावेज का हिस्सा नहीं होती है। 

इस अध्ययन में यह जानने की कोशिश की गई हैं कि क्या आधिकारिक संस्था के प्रतिनिधि द्वारा आधिकारिक पद की जिम्मेदारी के निर्वहन के दौरान व्यक्त किए जाने वाले विचार आधिकारिक दस्तावेज के भी हिस्सा होते हैं? 

क्या आधिकारिक दस्तावेज का हिस्सा नहीं होने वाले आधिकारिक संस्था के प्रतिनिधियों के विचारों का समाचार माध्यमों में इस्तेमाल उचित हैं। यदि वह उचित है तो उसकी सीमा क्या है?  उचित होने का प्रश्न इसीलिए महत्वपूर्ण है कि संस्थाओं के प्रतिनिधि अपने विचार प्रकट करते हैं लेकिन वे विचार उस प्रतिनिधि के तो होते हैं, लेकिन वह पद के विचार के रूप में दस्तावेज का हिस्सा नहीं बनते हैं। यह समाचार माध्यमों की सामग्री के चरित्र को समझने व ग्रहण करने में एक जटिलता निर्मित करता है।    

एक अध्ययन 

26 नवंबर 2022 संविधान दिवस के अवसर पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित कार्यक्रम में देश की राष्ट्रपति दौपद्री मुर्मू ने कार्यक्रम में उपस्थित न्यायाधीशो व अन्य गणमान्य व्यक्तियों को संबोधित किया। राष्ट्रपति को संविधान के रक्षक के रूप में परिभाषित किया गया है। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से ही विधायिका में लिए गए फैसले आधिकारिक दस्तावेज के रूप में परिवर्तित होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ही वह संवैधानिक संस्था है जो कि संविधान के आलोक में विधायिका द्वारा बनाए जाने वाले कानूनों को लेकर यह समीक्षा कर सकता है कि वह संविधान सम्मत है अथवा नहीं। राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट और विधायिका (संसद) की जिम्मेदारियों व संविधान की व्यवस्थाओं को लेकर संस्थागत स्तर पर समीक्षा करने की प्रक्रिया की गंभीरता को यहां समझा जा सकता है। लेकिन 26 नवंबर 2022 को राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट के कार्यक्रम में दिए गए भाषण और उस कार्यक्रम की समाचार माध्यमों में खबरों के बीच इस तरह की भिन्नता दिखती है कि वे दो तरह के कार्यक्रमों में राष्ट्रपति की उपस्थिति और उनके भाषण हैं। 

राष्ट्रपति भवन की वेबसाइट पर 26 नवंबर 2022 को सुप्रीम कोर्ट के कार्यक्रम में दिए गए भाषण की प्रति उपलब्ध है।1 इस भाषण को देखें और समाचार माध्यमों में उस कार्यक्रम से जुड़ी खबरों2 पर नजर डालें। सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित कार्यक्रम के दौरान राष्ट्रपति के आधिकारिक भाषण से भिन्न सामग्री समाचार माध्यमों में आई। इसमें राष्ट्रपति ने भारत के जेलों की बढ़ती तादाद, जेलों में हाशिये के समाज के लोगों के बंदी के रूप में हालात, न्यायापालिका के रुख और विकास की नीतियों को लेकर सवाल खड़े किए। सुप्रीम कोर्ट के इस बयान ने सुर्खियां बटोरी लेकिन वह राष्ट्रपति के आधिकारिक भाषण का हिस्सा नहीं बना। क्योंकि अधिकारिक भाषण को तैयार करने की एक प्रक्रिया होती है और उसमें राष्ट्रपति का कार्यालय मुख्य रुप से शामिल होता है। इस तरह व्यक्ति के रूप राष्ट्रपति का भाषण और राष्ट्रपति पद पर जिम्मेदारियां का निर्वहन करने वाले पदधारी के बीच एक दूरी स्पष्ट दिखती है।

समाचार माध्यमों ने राष्ट्रपति के भाषण के उन अंशों को नागरिकों के लिए प्रमुखता दी जो कि राष्ट्रपति के अपने अनुभवों पर आधारित हैं। नागरिक के तौर पर समाचार माध्यमों में आई सामग्री और राष्ट्रपति के आधिकारिक वक्तव्य के बीच में अंतर को कैसे समझे? नागरिक के तौर पर यह उसके सामने जटिल स्थितियां खड़ी करता है। क्या यह माना जा सकता है कि राष्ट्रपति की दो तरह की भूमिका यहां दिखती है। उसका एक पक्ष यह है कि वह नागरिकों और संविधान के ढांचे के प्रतिनिधि दोनों के बीच किसी मुद्दे या विषय को लेकर विमर्श के लिए प्रेरित करना है। लोकतंत्र में यह उचित माना जाता है कि किसी भी संवैधानिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करने वाले प्रतिनिधि नागरिकों के बीच समाज और व्यवस्था से जुड़ी किसी स्थिति को लेकर विमर्श की प्रक्रिया शुरू करें। लेकिन क्या यह संभव होता है?  आमतौर पर यह देखा जाता है कि किसी स्थिति व किसी विषय पर विमर्श का दौर शुरू करना, इस बात पर निर्भर करता है कि वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाले नागरिक समूहों के हित से कितना जुड़ा है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के भाषण के बाद देश में जेलों में लंबे समय से बंदी रहने वाले समाज के कमजोर वर्गों के लोगों और न्यायपालिका की लचर स्थिति को लेकर कुछ सुगबुगाहट मचती है, लेकिन उस पर शीघ्र ही राख पड़ी दिखती है। 

इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि समाचार माध्यम आधिकारिक माध्यम नहीं होते हैं। यह निजी कंपनियों द्वारा अपने आर्थिक-राजनीतिक हितों के लिए किए जाने वाला एक उपक्रम है। मीडिया कंपनियों को बराबर अपने पाठकों-दर्शकों को यह बराबर आभास देने की जरूरत होती है कि वह अपने उपभोक्ताओं के लिए है और उनकी तरह-तरह की भावनाओं से रिश्ते बनाए ऱखने के प्रयास से ही संभव होता है। लेकिन समाज में किसी स्थिति या हालात में बदलाव के लिए यह जरूरी होता है कि उस हालात व स्थिति को लेकर एक विमर्श चलें और उस समय तक कि वह एक निश्चित दिशा में विचार का रूप ले लेता है। द्रौपदी मुर्मू महिला के साथ समाज के उस वंचित तबके के बीच पली-बढी नागरिक हैं जिन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर पीछे धकेला गया है। समाज के इस हिस्से को सबसे ज्यादा संवेदनशील और मानवीय महसूस किया गया  है। अब वे राष्ट्रपति के पद पर हैं और देश की प्रथम नागरिक हैं। द्रौपदी मुर्मू ने जेलों में बंद नागरिकों के हालात का बयां उनके समक्ष किया जो कि न्यायिक अधिकारी के रूप में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिए पदास्थापित किए गए हैं। जेलों में बंदियो के हालात को समाचार माध्यमों ने जगह तो दी लेकिन वह एक घटना तक ही सीमित दिखी। जैसे कोई घटना घटती है और समाचार माध्यमों में उसकी सूचना दे दी जाती है। बंदियों के हालात का मुद्दा देश के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था की खामियों से जुड़ा है। लेकिन समाचार माध्यमों ने उसे एक विमर्श का हिस्सा बनाने की कतई कोशिश नहीं की। भारतीय समाज में जो विमर्श तैयार किए जाते हैं वास्तव में उसकी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि महत्वपूर्ण होती है। यह महत्व नहीं रखता है कि किसी विमर्श को किस पद के द्वारा विकसित करने की पहल की गई है। इसलिए यह कोई जरूरी नहीं है कि किसी भी सर्वोच्य पद पर आसीन व्यक्ति समाज के किसी विमर्श को खड़ा करने में सक्षम माना जा सकता है। सर्वोच्य पद या व्यक्ति नहीं, उसका विमर्श समाज के किस आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि की तरफ झुकाव रखता है, यह महत्वपूर्ण होता है। 

संविधान दिवस पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का न्यायिक अधिकारियों के समक्ष भाषण समाचार माध्यमों में कुछ क्षणों के लिए तो जगह पा लेता है लेकिन राष्ट्रपति के आधिकारिक वक्तव्य का वह हिस्सा नहीं बनाया जाता है।                

संदर्भ

1.https://presidentofindia.gov.in/speeches?title=&field_speeches_date_value=2022-11-26

2.https://indianexpress-com.translate.goog/article/india/murmu-points-to-undertrial-numbers-3.asks-why-do-we-need-more-jails-8291827/?_x_tr_sl=en&_x_tr_tl=hi&_x_tr_hl=hi&_x_tr_pto=tc

3.https://ndtv.in/india/there-is-talk-of-building-more-jails-what-kind-of-development-is-this-president-draupadi-murmu-3555860

 

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