अनिल चमड़िया
आम भारतीय समाज में शब्दों के इस्तेमाल को लेकर सतर्कता का अकाल दिखता है। मीडिया को लेकर भी
कई तरह के विशेषण का समय समय पर इस्तेमाल होता है। मोदी के शासन में ‘गोदी मीडिया’ का इस्तेमाल
हो रहा है। हिन्दी में काम करने वालों का मिजाज जड़ की बना हुआ है कि वह कविता की भाषा में विशेषण
की तलाश करना चाहता है। जैसे मोदी का गोदी।जबकि विशेषण एक दिशा देते हैं और किसी भी विषय की
गहराई में उतरने के लिए प्रेरित करते हैं।
मीडिया के बारे में पहले अपने राय को साफ करना चाहिए। क्या हम मीडिया को एक संस्था के रुप में
देखते हैं या फिर मीडिया कंपनियों को ही संस्था मान लेने की जिद पर डटे हुए हैं? जब किसी भी मंच को
संस्था कहते हैं तो उसके बारे में यह समझ बहुत स्पष्ट होती है कि वह मानवता, लोकतंत्र और संविधान के
उद्देश्यों व भावनाओं के साथ बंधी हुई है।लेकिन कंपनियां मानवता,लोकतंत्र और संविधान की भावनाओं से
कतई नहीं जुडी होती है। वह महज भावनाओं का दोहन करती है। मानवता, लोकतंत्र और संविधान के
उद्देश्यों या उससे लोग जो अपेक्षा करते हैं , उसके बीच कंपनियां अपने लिए रास्ता निकालती है और
संविधान के अधिकारों का दोहन करती है। भारत में ‘गोदी मीडिया’ के विशेषण , उन्हें तो ठंडक महसूस करा
सकती है जो मीडिया कंपनियों से लोकतंत्र, मानवता , संविधान की भावनाओं व उद्देश्यों को आगे बढ़ाने की
दिशा में उम्मीद करते हैं। लेकिन वे गोदी मीडिया की भाषा में आलोचना से यह समझ हासिल करने में पीछे
रह सकते है कि मीडिया कंपनियों की कैसे लोकतंत्र और संविधान के बरक्स ताकत बढ़ती चली जा रही है
और उसके कारण क्या है। बड़ी रोचक स्थितियां उस समय दिखाई देने लगती है जब किसी ताकतवर के
किसी फैसले के विरुद्ध मीडिया कंपनियों का कोई हिस्सा अपनी आवाज लगाने की जरुरत महसूस करता है
तब पत्रकारिता के इतिहास के दोहे गूंजने लगते हैं।
भारत में मीडिया कंपनियां अपने हितों को लेकर लगातार ताकतवर हुई है।वे इतनी ताकतवर हुई है कि
हजारों की संख्या में छोटे और मझोले माने जाने वाले मीडिया के मंच इतिहास में समा गए। बीसेक अखबार,
दर्जन भर टीवी चैनल और अन्य टेक्नोल़ॉजी पर आधारित समाचार- सामग्री देने वाले कुछ मंच ( कंपनियां)
भारतीय लोकतंत्र में एकाधिकार की स्थिति बना चुके हैं। मीडिया कंपनियां उन्हीं के द्वारा संचालित होती है
जो कि दूसरे कारोबार से जुड़ी कंपनियों के भी मालिक होते हैं। मीडिया कंपनियों की ताकत से दूसरे कारोबार
की कंपनियां तेजी के साथ फलती फूलती है। राजनीति के क्षेत्र में जिस तरह से सत्ता की ताकत का इस्तेमाल
मंत्री, विधायक, सांसद करते हैं , नौकरशाही में अधिकारी करते हैं, न्यायापालिका में उसके अधिकारी करते हैं,
उसी संस्कृति का हिस्सा मीडिया कंपनियां होती है। मीडिया कंपनियां हिस्सेदारी करती है।
एक दौर ऐसा आता है जब ‘राष्ट्रीय मीडिया’ के बरक्स अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की तरफ भरोसा बढ़ जाता है
लेकिन अंतर्राष्ट्रीय यानी बड़े कहे जाने वाले देशों की कंपनियों द्वारा चलाए जाने वाले मीडिया मंच। लेकिन
वे आखिरकार कंपनियां ही है। यदि भारत में मीडिया कंपनियां चुनाव में सत्ताधारी के साथ जुटकर यह
कोशिश करती है कि उसे और ताकत हासिल हो यानी संसद में 400 पार की स्थिति बने तो फेस बुक में
साम्प्रदायिक घृणा के विज्ञापनों का प्रसार बना हुआ था। मीडिया कंपनियां केवल वहीं तक सीमित नहीं है जो
कि समाचार पत्र छापती और बांटती है। टीवी चैनल खोल लेती है। मीडिया कंपनियों का जाल काफी बड़ा हुआ
है। मीडिया कंपनियां एक तो सामग्री छापती है , सुनाती है या दिखाती है लेकिन कई कंपनियां ऐसी है जो
कि मीडिया के लिए सामग्री तैयार करती है। और वैसी कंपनियों का रिश्ता दूसरे तरह की कंपनियों से जुड़ा होता है। इस तरह कंपनियों का एक कारपोरेट यानी निगम विचारधारा के रुप में लगातार सक्रिय रहता है।
भारत जैसे देश में चुनाव के वक्त यह ज्यादा संगठित होकर और आक्रमकता के साथ अपनी भूमिका पूरी
करता है।
भारत के अब तक के चुनाव तक की यात्रा में हम यह साफ तौर पर देख सकते हैं कि वह भारतीय जन
मानस की भावनाओं, उसकी अपेक्षाओं से कितनी दूर है। मुख्य धारा का दावा करने वाली मीडिया कंपनियां
400 पार के नारे के साथ थी जबकि जन मानस 400 के शोर को संविधान पर हमले के रुप में देख रही थी।
न केवल चुनाव प्रचार के दौरान बल्कि चुनाव समाप्त होने के बाद भी वह 400 पार के अपने इरादों को पूरा
करने में जुटी थी। जबकि चुनाव के नतीजे एक दूसरी कहानी बयां कर रहे थे।