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मीडिया में खबरों का खंडन का सिद्धांत

पुष्टि क्या सरकारी शब्द है?  मीडिया में पुष्टि का पक्ष क्या होता है?  खबर के प्रकाशन और प्रसारण के बारे में यह एक पाठ है कि उसकी पुष्टि के बिना उसे लोगों के बीच प्रसारित व प्रकाशित नहीं करना चाहिए। खबर के किस हिस्से की पुष्टि की जाती है? खबरनवीस ने जो देखा और सुना उसकी पुष्टि वह पेश करता है। किसी विस्फोट की घटना के संबंध में किसी ब्यौरे के लिए पुष्टि पुलिस ही कर सकती है, क्योंकि वह कानून एवं व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है। वही ऐसी घटना की जांच करने के लिए अधिकृत है। लेकिन इस तथ्य का बराबर ध्यान रखा जाना चाहिए कि पुष्टि कोई सरकारी शब्द नहीं है और ना ही सरकारी प्रक्रिया।

गोपनीय तरीके से किए गए विस्फोट जैसी घटनाओं की खबरों में जो ब्यौरा आमतौर पर तत्काल उपलब्ध नहीं हो पाता है वह है कि इस विस्फोट के लिए कौन जिम्मेदार है? जिम्मेदारी तय करने के लिए जांच प्रक्रिया की जरूरत होती है। लेकिन खबरनवीस के पास तत्काल इस ब्यौरे के लिए कितने स्रोत उपलब्ध हो सकते हैं, यह देखा जाना चाहिए।स्थानीय पुलिस,खुफिया एजेंसियां,आरोप लगाने वाली इकाई,विस्फोट की ज़िम्मेदारी लेने वाली इकाई,परिस्थितियां।

अमेरिका ने इराक पर हमले की योजना की पृष्ठभूमि खुफिया सूत्रों के हवाले से बड़े पैमाने पर प्रचारित-प्रसारित खबरों के जरिए ही बनाई थी। मीडिया ने उसकी विश्वसनीयता को लेकर पुष्टि की जरूरत नहीं समझी। जबकि विश्वसनीयता पर संदेह करने के तथ्यात्मक, रणनीतिक परिस्थतियां इस तरफ साफ इशारा करती रही। अमेरिका ने अपनी खुफिया जानकारी के आधार पर इराक के पास घातक हथियारों की उपलब्धता भी बताई। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र में युद्ध की अपनी पेशकश को जायज ठहराने के लिए उसने यह भी बताया कि इराक के साथ अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन अल कायदा के तार जुड़े हुए हैं। इसकी जानकारी उसे अपनी खुफिया एजेंसियों से मिली है। लेकिन दूसरी तरफ इराक के खिलाफ युद्ध की पेशकश को नामंजूर करने वाले फ्रांस ने संयुक्त राष्ट्र को यह बताया कि उसकी खुफिया एजेंसियों ने इराक और अल कायदा के रिश्तों से जुड़ी बातों को निराधार पाया है।इराक पर हमले के बाद अमेरिका के बुश प्रशासन और ब्रिटेन के ब्लेयर प्रशासन की इस बात के लिए आलोचना की गई कि उन्होंने अपने मकसद के लिए खुफिया तंत्र का बेजा इस्तेमाल किया।यह आरोप भी लगाया गया कि सूचनाओं को बहुत हद तक तोड़ा गया, खुफिया सूचनाओं के कुछ खास हिस्सों को अपने मकसद के लिए चुना गया और इराक के खिलाफ हमले के फैसले के समर्थन के लिए खुफिया तंत्र पर राजनीतिक दबाव बनाया गया।दिल्ली में 13 फरवरी को जब इजरायल दूतावास के अधिकारी की कार में विस्फोट कराया गया था तब उस घटना पर की जा रही रिपोर्टिंग पर टिप्पणी करते हुए एक वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा कि  “ यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय मीडिया ने इस तरह खबर देने के नतीजे की परवाह किए बिना और तथ्यों को जानने के बजाए इजरायल के आरोपों को पूरी तरह सच मान लेने का निर्णय कर लिया था। यहां तक कि अभी जांच प्रक्रिया भी शुरू नहीं हुई थी और मीडिया ने भारत को ईरान और इजरायल के बीच के युद्ध स्थल बनने की स्थिति पर विशेषज्ञों के बीच बातचीत शुरू करवा दी थी। ईरान के खंडन को एक तरफ फेंक दिया गया और मीडिया के कार्यक्रमों को देखकर कोई भी कह सकता था कि बातचीत में जो अति उत्साह दिखाया जा रहा है वह कॉरपोरेट और उससे जुड़े पक्षों को खुश करने के लिए था। दूसरे दिन उसी तरह प्रिंट मीडिया ने भी सुर में सुर मिलाना शुरू कर दिया। जिसमें एक भी ऐसी खबर ऐसी नहीं थी जो इजरायल के दावे (कि ईरान का इस विस्फोट में हाथ है) पर सवाल खड़े करती हो।

सरकारी खुफिया शब्द की विश्वसनीयता रही है जब तक कि सरकारों द्वारा इस शब्द के इस्तेमाल की पोलपट्टी नहीं खुल गई। नए परिपेक्ष्य में ‘सरकारी खुफिया सामग्री’ की कोई विश्वसनीयता  इस तरह नहीं रह गई है कि उस पर भरोसा ही किया जाए। दुनिया भर में खुफिया जानकारी को गढ़ना रणनीतिक योजनाओं का हिस्सा हो गया है। पूरी दुनिया में अनेकानेक उदाहरण मिल सकते हैं जिसमें जिन खुफिया सामग्री की आड़ में देश की सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय दबाव बनाने की कोशिश की है  उनका तथ्यों और वस्तुस्थिति से कोई नाता नहीं रहा है। देश के भीतर भी सरकारें अपने विरोधियों व राजनीतिक एजेंडे की मुखालफत करने वालों को ‘दुरुस्त’ करने और अपने राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के इरादे से खुफिया सामग्री तैयार करती है और उसका भरपूर इस्तेमाल किया है। पूरी दुनिया के स्तर पर खुफिया सामग्री मोटेतौर तीन तरह की होती है। पहली सामग्री खुफिया तंत्र द्वारा बिछाए जाने वाले जाल के स्रोतों से प्राप्त होती है। दूसरी सामग्री केवल लोगों के बीच प्रचार के लिए होती है और उसके जरिए सहमति का निर्माण की कोशिश की जाती है। तीसरी सामग्री रणनीतिक होती है जिसके जरिये खुफिया एजेंसियां किसी जांच में मदद हासिल करने का उद्देश्य रखती है और इस तरह की सामग्री में तथ्य और सत्यता के बजाए इरादे ही मुख्य होते हैं। भारत में ‘खुफिया एजेंसियों की सामग्री’ का बड़े स्तर पर दुरूपयोग की कई घटनाएं मिलती है। आतंकवादी गतिविधियों के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में इस्लाम धर्म के सदस्यों को खुफिया जानकारी की आड़ में जेल में डाला गया लेकिन जांच की न्यायिक प्रक्रिया में उन पर लगाए गए आरोप गलत साबित हुए। मीडिया ने भी इन्हीं खुफिया जानकारियों को अपनी खबरों व खोजपूर्ण रिपोर्ट का आधार बनाया। एक तरह से मीडिया ने अपनी खबरों की पुष्टि के लिए ऐसी सामग्री पर भरोसा किया। यह भी कहा जा सकता है कि मीडिया ने किसी खबर को लेकर पूर्व निर्धारित फैसलों को प्रसारित, प्रकाशित व प्रचारित करने में जानबूझकर ऐसी सामग्री का इस्तेमाल किया।इससे जवाबदेही का भार हवा हो जाती है। क्योंकि मीडिया में खुफिया स्रोत के हवाले से प्रसारित व प्रकाशित खबरों की कोई जवाबदेही खुफिया तंत्र पर नहीं होती है। दूसरी तरफ मीडिया भी खुफिया सामग्री का हवाला देकर अपनी जवाबदेही से मुक्त हो जाता है। क्योंकि कई ऐसी सरकारी एजेसियां होती है जिनके नाम होते हैं। यदि उन एजेंसियों के नाम के हवाले से कोई सूचना दी जाती है तो एक हद तक उस एजेंसी की जवाबदेही उस खबर के प्रति हो सकती है। लेकिन केवल खुफिया का हवाला देने का मतलब सभी एजेंसियों को जवाबदेही से मुक्त कर देना है। भूमंडलीकरण के दौर में पूर्वाग्रहों के लिए खबरों की पुष्टि का एक तर्कशास्त्र इस तरह से विकसित किया गया है।        

आरोप आरोप होते हैं। लेकिन हर किसी आरोप को बेजवह स्वीकार नहीं किया जा सकता है। आरोपों के साथ सहायक तथ्य होने जरूरी होते हैं। खबरों के लिए आरोपों को प्रसारित करने के लिए जरूरी है  वह आरोपों की सहायक सामग्री की पड़ताल करें। उनमें कितना पूर्वाग्रह है और उसके वास्तविक होने के शुरूआती संकेत मिलते हो। लेकिन आरोपों को स्वीकार करने को लेकर मीडिया पूर्वाग्रही होता है। जब दो पक्षों के बीच अपेक्षाकृत ताकतवर या ताकतवर के आरोपों को वह स्वीकार करने लायक मानता है। उदाहरण के लिए भारत के लिए इजरायल और ईरान दोनों महज दो राष्ट्र है और उन दोनों के साथ भारत के राजनयिक संबंध हैं।राष्ट्र के रूप में दोनों पक्ष भारत के मीडिया के लिए एक समान होने चाहिए। ईरान के साथ तो भारत के पुराने संबंध रहे है और उनके आर्थिक हित आपस में काफी घुले मिले हैं। भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद इजरायल से रिश्ते बनने शुरू हुए। भारत इजरायल से हथियार का बड़ा खरीददार है तो ईरान से तेल का खरीददार रहा है। लेकिन भारतीय मीडिया की नजर में भूमंडलीकरण के दौर में अमेरिका और इजरायल दुनिया की सबसे ताकतवर शक्ति हैं। इसीलिए वह कई मौके पर खबरें देते वक्त राष्ट्र की सार्वभौमिकता और स्वतंत्रता की परिधि को नजरअंदाज कर देता है। 

पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारतीय मीडिया ने विदेशों खासतौर से अमेरिका व ब्रिटेन के जरिए भारत के लोगों को न जाने कितने आतंकी हमले की आशंका की खबरें दी है। कई बार सरकार को ये कहना पड़ा है कि इस तरह के खतरे की कोई बात नहीं है।शायद ही कोई ऐसा मौका हो जब मीडिया ने उनमें से एक बार भी विदेशों ( ताकतवर देशों) द्वारा दी जा रही जानकारी को नजरअंदाज करने का साहस किया हो। दिल्ली के जब पुलिस कमीश्नर वाई एस डडवाल थे तब उन्होने एक ऐसी ही चेतावनी के बाद कहा कि हर देश अपने कारणों से ऐसी चेतावनी व सतर्कता जारी करता है। उनका संकेत साफ था। लेकिन हद तो ये हो गई कि पुलिस कमीश्नर की उस प्रेस कांफ्रेस की छोटी सी खबर एक दो अखबारों में अंदर के पेज में लगी। ज्यादातर अखबारों में तो ये पंक्ति ही खबर के रूप में नहीं थी कि हर देश अपने अपने कारणों से चेतावनी व सतर्कता की सलाह जारी करते हैं।

अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा भारत के दौरे पर आए अपने नागरिकों को अपनी सुरक्षा के प्रति चौकस रहने की दी जाने वाली सलाह भारत के मीडिया को आतंकवादी हमले की आशंका लगती है। वह इस तरह की सलाहों को किसी भी स्तर पर पुष्ट करने की जरूरत नहीं महसूस करती है। यहां तक कि इस तरह की खबरों के खंडन को भी स्वीकार नहीं करती है जबकि इस तरह के लिए अधिकृत स्रोत द्वारा वह  खंडन जारी होता है। नतीजा जो होता है वह कई मौके पर देखने को मिला है। मॉल खाली करा लिये जाते हैं ।संप्रेषण के मनोविज्ञान की परतों के जो अध्येता है उन्हें मालूम होगा कि मुबंई से फैक्स के जरिये एक टीवी चैनल को दिल्ली में बम रखे जाने की जानकारी देने का इस तरह असर हुआ क्योंकि उसकी पृष्ठभूमि में अमेरिका व ब्रिटेन की सलाह को बड़े खतरे के रूप में पेश किया गया। आदत सी हो गई है कि सतर्कता के नाम पर कभी भी किसी जगह को खाली करा लिया जाए। यानी कहा जा सकता है कि हमें अपनी सुरक्षा व्यवस्था पर भरोसा कतई नहीं रह गया है।

आखिर अपने देश का अधिकारी पुष्टि के स्रोत के रूप में कब तक बचा रह सकता है जबकि मीडियाकर्मियों के दिमाग से राष्ट्र की सार्वभौमिकता की लकीरें मिट चुकी है। कई ऐसी घटनाएं मीडिया जगत में सामने आ चुकी है। देश की किसी घरेलू स्तरीय घटना पर विश्व बैंक व अंतर्राष्ट्रीय संगठन से प्रतिक्रिया लेने मीडियाकर्मी पहुंच गए हैं। किसी सूचना की पुष्टि की जरूरत नहीं रह जाती है यदि जिस सूचना को पुष्ट करना है वह खुद ब खुद चलकर आ जाए। भूमंडलीकरण के दौर से पहले दुनिया में सत्ता से लड़ने वाले संगठन व व्यक्ति किसी तरह की हथियारबंद कार्रवाई करते थे तो उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए आगे आते थे। उनका इस तरह की कार्रवाई का मकसद तभी पूरा हो सकता था। चुपचाप कार्रवाई से वैसे संगठन व राजनीतिक व्यक्ति को कोई लाभ नहीं मिलता दिखाई देता क्योंकि उनकी कार्रवाई का उद्देश्य महज नष्ट करना और व्यक्तिगत लाभ अर्जित करना नहीं हो सकता था। मीडिया में भी उनकी स्वीकारोक्ति से घटना की जिम्मेदारी की पुष्टि हो जाती थी। लेकिन भूमंडलीकरण का दौर शुरू होने के बाद खासतौर से भारत में आतंकवादी घटनाओं के बाद उसे अंजाम देने के कई कई संगठनों के दावे सामने आए। यहां तक कि मीडिया ही विस्फोट के बाद उसकी जिम्मेदारी लेने वाले कथित संगठनों का पोस्ट ऑफिस बन गया। तकनीकी विकास में ईमेल और फैक्स से झटपट मीडिया को विस्फोट के लिए जिम्मेदारी लेने वाला संगठन अपना नाम जाहिर कर देता। मीडिया उसी तरह से ऐसी सूचनाओं को पुष्ट मानकर प्रसारित व प्रकाशित करता है। खबर की पुष्टि का एक स्रोत ये हैं लेकिन इसके दुरूपयोग या भ्रमित करने के माध्यम के रूप में भी देखा गया है। दुरूपयोग किसी भी स्तर पर किया जा सकता है। मीडिया की खबरों की पुष्टि के लिए इस स्रोत को पूरी तरह से सत्य मानकर नहीं चला जा सकता है।

भूमंडलीकरण के दौर में बनते नए समीकरण और हितों के टकराव की नई परिस्थतियां विकसित हुई है। किसी घटना के बाद उससे जुड़ी परिस्थितियों की जानकारी का अभाव पुष्टि के वास्तविक स्रोत की पहचान और उस तक पहुंचने में बाधा खड़ी करता है। पुष्टि के जितने भी मानक व अधिकारिक स्रोत है वे ऐसे मौके पर अपने तरीके से सक्रिय होते हैं।1)राष्ट्र की सार्वभौमिकता और स्वतंत्रता के सिद्दांत पर भरोसा है तो ऐसे मौके पर राष्ट्र के तंत्र को पुष्टि के लिए अधिकारिक स्रोत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।2)यदि निष्पक्षता और स्वतंत्रता के सिद्दांत पर भरोसा है तो सभी पक्षों के आरोप-प्रत्यारोप, जो अपनी सहायक सामग्री के साथ हो, को एक सामान जगह और समय दिया जा सकता है।3) यदि मीडिया की जवाबदेही अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के प्रति है और उसे सहमति के निर्माण का केन्द्र बनाने का इरादा नहीं हो तो पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं में भ्रम और दुविधापूर्ण स्थिति से बचाने और उनकी विश्लेषण क्षमता पर भरोसा करते हुए घटना के हर पहलू को सामान रूप से जगह व समय दिया जा सकता है। 

दरअसल पूर्वाग्रह से मुक्ति ही पुष्टि के स्रोतों की पहचान कराने में सहायक हो सकती है। यदि पूर्वाग्रह है तो आधी-अधूरी सूचना को मीडिया अपनी तरफ से पूरी करने में सक्रिय हो जाता है। वह हमेशा आधी-अधूरी और अपुष्ट सूचना के लिए तत्पर रह सकता है। जैसा कि इराक पर हमले के पूर्व भी किया गया था। मीडिया में खबर की पुष्टि का सिद्दांत तभी लागू हो सकता है कि जब वह सहमति के निर्माण कार्यक्रम का हिस्सा बनने की प्रक्रिया से खुद को अलग करने की कोशिश करे। यदि वह सहमति के निर्माण का माध्यम बनता है तो वह पुष्टि के सिद्दांत को स्वीकार नहीं करेगा। पुष्टि के मानक स्रोतों का अपने इरादे के अनुरूप इस्तेमाल जरूर कर सकता है। पुष्टि का सिद्दांत भूमंडलीकरण के दौर में सहमति के निर्माण के कार्यक्रम की दिशा में निर्धारित होते है। वे बनते-बिगड़ते रहते हैं। पूरी दुनिया में यही देखा जा रहा है। खबर के साथ उसके पाठक, श्रोता व दर्शक पुष्टि जैसे शब्द जरूर जुड़े सुनता व पढ़ता है लेकिन वे पुष्टि के सिद्दांत के मानकों के खांचे से अलग हितों से जुड़े होते हैं।

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