पारुल सिंह*
सुप्रीम कोर्ट ने 2008 में एम.एफ. हुसैन की विवादित पेंटिंग्स (चित्र 1 और 2) मामले में फैसला दिया था। लेकिन उस दौर में इस मसले को लेकर कानून और कला, आदर्श और सांस्थानिक रवैये, प्राचीन भारतीय कला और समकालीन भारतीय कला के शैलीगत मूल्यों के बीच, पवित्रता और धर्मनिरपेक्षता, कामुकता और अश्लीलता, राष्ट्रीयता और राष्ट्र विरोधी, सार्वजनिक और निजी दायरे, कलात्मक स्वतंत्रता और संवैधानिक स्वतंत्रता, शालीनता और नैतिकिता, सामाजिक उद्देश्य और फायदे की राजनीति के बीच मुठभेड़ देखने को मिली।
जज जस्टिस किशन कौल ने एक अभूतपूर्व और विस्तृत फैसले में हुसैन को बरी कर दिया। जिसमें हमें एक ‘आदर्श नागरिक’ के ‘कानून में कला’ और ‘कानून के नजरिये से कला’ का ज्यूडिशियल मॉडल का नजरिया देखने को मिला। साथ ही ‘कानून की नजर में कला’ के इस फैसले में कला को देखने-समझने की न्यायायिक भाषा के तौर-तरीके को देखेंगे कि उसने कला को देखने का क्या नजरिया अपनाया। जिसने दर्शकों के एक कानूनी सिद्धांत की तरह ही कला का एक कानूनी सिद्धांत भी गढ़ा। इसका भी विश्लेषण करेंगे कि दर्शकों पर इसका क्या प्रभाव पड़ा। ‘कानून के नजरिये से कला’ के न्यायायिक भाषा को भी समझेंगे जिसमें उसके नरम रुख को जब कला के ढांचागत सामाजिक मूल्यों के साथ ही सामाजिक-ऐतिहासिक फ्रेमवर्क के विरोधाभासों का सामाना करना पड़ा।
चित्र-2: मकबुल फिदा हुसैन, भारत माता
चित्र-1: मकबुल फिदा हुसैन, सरस्वती, लाइन ड्राइंग, पेन ऑन पेपर 1970
एमएफ हुसैन का मामला
वीएस वाजपेयी के संपादन में निकलने वाले हिंदी जर्नल ‘विचार मीमांसा’ ने 1996 में चित्रकार एमएफ हुसैन की पेंटिंग्स को लेकर ‘हुसैन-चित्रकार या कसाई’ शीर्षक से एक लेख छपा, जिसे ओम नागपाल ने लिखा था। (धवन, 2007)। इस लेख में 1970 के दशक के हुसैन के रेखाचित्रों को छापा गया और इन पर सिलसिलेवार सवाल खड़े किए गए थे। (चित्र-1) जबकि हुसैन के ये सभी रेखाचित्र पहले से ही सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध थे जो कैटलॉग और किताबों में प्रकाशित थे। इस लेख में दावा किया गया कि ये चित्र अशोभनीय हैं और देवी-देवताओं को नग्न मुद्राओं में चित्रित करके हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई है। 1996 से 2006 तक हुसैन के खिलाफ दक्षिणपंथी हिंदू गुटों के हमले बढ़ गए और इंडियन पीनल कोड के सेक्शन 292/294/298 के तहत हुसैन के खिलाफ कई सारे मामले दर्ज करा दिए गए। उन पेंटिग्स गैलरियों और ऑक्शन हाउसेज में तोड़फोड़ की गई, जहां हुसैन की पेंटिंग्स प्रदर्शित की जातीं। मुंबई के उनके घर में भी घुसकर तोड़फोड़ की गई। यहां तक कि उन्हें जान से मारने तक की धमकी दी गई। ईमेल और पत्रों के जरिये झूठा प्रोपेगैंडा फैलाने के लिए दक्षिणपंथी पोर्टल और पत्रिकाओं की बाढ़ सी आ गई। दो मौकों पर हुसैन को ‘भारत-माता’ की नग्न तस्वीर बनाने की वजह से ‘जनभावना को ठेस पहुंचाने’ के आरोप में अदालतों में माफी मांगनी पड़ी। राजीव धवन हुसैन के माफीनामे को उनकी सदाशयता करार देते हैं और कहते हैं कि साम्प्रदायिक तनाव को कम करने और हिंदू कंटरपंथियों द्वारा बहुसंख्यक आबादी को हुसैन के खिलाफ भड़काने की मंशा रोकने के लिए किया गया प्रयास बताया। राजीव धवन एक किस्म की सेंसरशिप की तरफ इशारा कर रहे हैं जिसमें शख्स ‘धमकियों, माफी के चलते खुद पर ही पाबंदी थोप लेता है’ यानी सेल्फ-सेंसरशिप का रास्ता अपना लेता है।
ताप्ती गुहा ठाकुरता ने एक सेलिब्रिटी पेंटर के तौर पर हुसैन के खिलाफ ‘गुस्सा भड़काने’ की वजह और उनकी पृष्टभूमि को खंगालने की कोशिश की। वह लिखती हैं, ‘एमएफ हुसैन को क्यों निशाना बनाया गया, और वो कौन सी विशेष राजनीतिक परिस्थितियां थीं जिन्होंने उनके और उनकी कला के खिलाफ इस ‘आग’ को भड़काया? आप पारंपरिक भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला या कई अन्य आधुनिक भारतीय कलाकार भी हैं जिन्होंने देवियों की नग्न तस्वीरें बनाई हैं लेकिन क्या वजह रही कि ऐसा करने पर हुसैन निशाने पर आ गए।
असल में, यह सब हुसैन की पृष्टभूमि की वजह से हुआ। हुसैन अपने काम से अपनी पुरानी कामकाजी पृष्टभूमि से अलग एक आधुनिक और सेक्युलर शख्सियत के तौर पर स्थापित होना चाहते हैं। (गुहा-ठाकुरता, 2010)। अपने समकालीन चित्रकारों के विपरीत, हुसैन ने “हिंदू धार्मिक और पौराणिक प्रतिमाओं”, भारतीय राष्ट्र राज्य की बहु-जातीय विविधता और यहां तक कि मुख्यधारा की सिनेमाई संस्कृति में खुद साहसपूर्वक मुखर होना चुना। जिन नग्न रेखाचित्रों को लेकर दक्षिणपंथी गुट भड़कते रहे हैं वो चित्र उतने भी हिंदू देवियों की कलात्मकता को रिप्रजेंट नहीं करते। लेकिन यह फैक्ट है कि ये रेखाचित्र उस शख्स ने बनाए थे जो मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय से था। गुहा-ठाकुरता लिखती हैं, ‘हुसैन पर हमले के जरिये नए विशेषाधिकार प्राप्त मॉर्डन आर्ट वर्ल्ड और कलाकार के रूप में ‘सुपर-सिटिजन’ को मिले विशेषाधिकार को नई-नई राजनीतिक हुई दुनिया के सामने सवालों के कठघरे में खड़ा करना था।’
असल में, दक्षिणपंथी धड़ा अपनी सांस्कृतिक कट्टरता के जरिये ‘लोक कल्याण’ के नाम पर कला और ‘अश्लीलता’ पर बहस को सार्वजनिक बनाने में कामयाब रहा है।
इस सांस्कृतिक कट्टरता ने एक ऐसी भाषा और उसकी रूपरेखा बनाने की मांग की जिसे कानूनी तौर पर स्वीकृत या अस्वीकृत किया जा सके। सार्वजनिक दायरे में कला को प्रोडक्ट के रूप में सर्कुलेट करने के सवाल को संवैधानिक सरोकार से सीधे जोड़ता है। आईपीसी की धारा 292 कहती है:
कलाकृति, जो कोई बेचता है, किराए पर देता है, बांटता है, सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करता है या किसी भी तरह से सर्कुलेट करता है, कोई अश्लील किताब, पैम्फलेट, पेपर बनाता है, उत्पादन करता है या अपने कब्जे में रखता है, ड्राइंग, पेंटिंग, आकृति या कोई अन्य अश्लील वस्तु जो भी हो … को दंडित किया जाएगा।
कानून की यही भाषा ‘एक्स्ट्रा-आर्टिस्टिक’ और ‘एक्स्ट्रा लीगल’ अराजक तत्वों को ‘आदर्श नागरिक-दर्शक, पाठक’ की आड़ में बोलने की ताकत देती है। धवन का कहना है कि अपराध की ‘संज्ञेयता’ और हुसैन के खिलाफ प्रोपेगैंडा ने उन्हें अपनी कला और कला की स्वतंत्रता के बचाव में आने को मजबूर किया। कानून की इन्हीं लाइनों के चलते अराजक तत्व कला की दुनिया पर हमला करने, हिंसक घटनाओं को अंजाम देने में कामयाब रहे।
इसी वजह से हुसैन को दक्षिणपंथी कट्टरपंथियों की ओर से थोपे गए ‘हेट स्पीच’ के लिए माफी मांगनी पड़ी जबकि तोड़फोड़ करने वालों को क्षमा मांगने की जरूरत थी। फैक्ट है कि प्रोपेगैंडा के साफ सबूत हैं। यह भी फैक्ट है कि एक कलाकार को ‘कला के खिलाफ अपराध’ से कला को बचाना था लेकिन उसे ‘कला के अपराध’ के बचाव में आना पड़ा। यह दर्शाता है कि कोई भाषण कानून के दायरे से बाहर नहीं है और भाषण स्वतंत्रता के लिए विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। (रामदेव 2015) धवन यह भी कहते हैं कि हुसैन का मामला अपने आप में एक सजा है क्योंकि उनके खिलाफ सिविल के बजाय क्रिमिनल केस दायरे किए गए थे। मामले में निर्णय देने से पहले, अगर शिकायत प्रथम दृश्या भी सही है लेकिन जिसके खिलाफ शिकायत की गई है और अगर वह आरोपी नहीं भी है फिर भी उससे ‘आरोपी जैसा सलूक’ किया जाता है। [1] यह वह समय होता है जब नफरत फैलाने का एजेंडा खतरे का रूप अख्तियार कर लेता है, जो कानूनी कार्रवाई का सहारा लेता है। और यहीं से ‘कानूनी निवारण’ की व्यवस्था ‘दमन को बढ़ावा’ देने लगती है। [2]
‘अश्लीलता’ का तीर और ‘आहत भावनाओं’ का घाव: श्रीमंथुला चंद्रमोहन का मामला
इसी तरह 2007 में एमएस यूनिवर्सिटी, बड़ौदा में अराजक तत्वों ने फाइन आर्ट के स्टूडेंट श्रीमंथुला चंद्रमोहन के खिलाफ इसी हथियार का इस्तेमाल किया। चंद्रमोहन के खिलाफ भी कला में ‘अश्लीलता’ के आरोप लगाए गए और आईपीसी की धारा 292 के तहत केस दर्ज कराए गए। कर्स्टन मे के अनुसार, जिस तरीके से सार्वजनिक तौर पर चर्चा की जाती है उस तरह से अश्लीलता कंटेंट या कल्चरल प्रोडक्ट के अन्य रूप में नहीं पाई जाती है। उदाहरण के लिए एक कलाकृति या एक तस्वीर प्रोडक्ट, सर्कुलेशन और उसे देखने-दिखाने के तौर-तरीके में अश्लील हो सकती है लेकिन कोई वस्तु अपने आप में अश्लील नहीं होती है। कर्स्टन मे कहते हैं कि एक कल्चरल प्रोडक्ट या कार्यक्रम पर अश्लीलता ठप्पा तब लगता है जब उसके प्रभावों का मूल्यांकन किया जाता है। (मे, 2006)
हुसैन को बरी करने वाला सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी इसी तरह का मामला था। इसमें कहा गया कि कोर्ट ने चित्रकार के इरादे और दर्शकों के दृष्टीकोण को समझकर फैसला दिया है। यहां कोर्ट के सामने एक क्रिएटिव सब्जेक्ट की खातिर ऐसी पोजिशन से बोलने की चुनौती है जो कला की रचनात्मक स्वतंत्रता की रक्षा का रास्ता चुनता है। यह न्यायिक भाषा का मजाक है। कलाकार खुद को केवल राज्य के एक विषय के रूप में संबोधित कर सकता/सकती है और क्षमा या दंड देने के लिए अपनी उदारता पर भरोसा कर सकता है।
फैकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स, बड़ौदा में एक ललित कला मेला आयोजित करने की परंपरा रही है, जिसकी शुरुआत केजी सुब्रमण्यम ने शांति निकेतन में नंदनमेला की तर्ज पर की थी। इस मेले ने फैकल्टी, छात्रों और बड़ौदा की आम जनता को मिलने और बातचीत करने का मंच मुहैया कराया। इस अनौपचारिक संवाद ने इस क्षेत्र की जनता में कला की समझ को विकसित किया। (कन्नेगल एट अल, 2012) [3] इस मेले ने कुछ मायनों में आम लोगों और शिक्षिकों के मिलनेजुलने और एक-दूसरे को समझने का मंच मुहैया कराया और साथ ही एक ऐसा मंच भी दिया जहां व्यावसायिक कला जगत छात्रों की कला कृतियों को देख सकता है। इसी मंच पर चंद्रमोहन की पेटिंग्स भी प्रदर्शित की गई थीं।
इन पेंटिंग्स से दो अलग-अलग धार्मिक समुदायों की भावनाएं आहत हुईं। जिसमें देवी दुर्गा और जीसस की पेंटिग्स शामिल थी। आरोप लगाने वाले पक्ष की अगुआई वकील नीरज जैन कर रहे थे। बाद में चंद्रमोहन के खिलाफ वाली लॉबी में बड़ौदा के मेथोडिस्ट चर्च के डिस्ट्रिक्ट सुपरिटेंडेंट रेवरेंड इमैनुएल कांत भी शामिल हो गए।[4] प्रोफेसर शिवाजी पणिक्कर का कहना था कि धार्मिक भावनाओं का नैरिटव गढ़ना साफ तौर पर ध्रुवीकरण का एजेंडा था जिसका फायदा उस साल हुए विधानसभा चुनावों में लिए जाने के मकसद से किया गया।[5] राज्य में 2001 से सत्ता पर काबिज दक्षिणपंथियों ने तब से सेंसरशिप के कानूनों का दुरुपयोग करने को लेकर एक तरह से महारत हासिल कर ली थी। सेंसरशिप का कानून भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रेगुलेट करने के लिए जनता की सहमति पर निर्भर करता है। एमएफ हुसैन के उलट चंद्रमोहन के खिलाफ क्रिमिनल केस दर्ज किया गया और इस शर्त पर जमानत पर उन्हें रिहा किया गया कि वह अपनी क्रियटिविटी का इस्तेमाल सोच-समझकर करेंगे। हालांकि राजनीतिक गठजोड़ के चलते ‘विवादित’ तस्वीरों को बार-बार प्रकाशित करके मीडिया ‘जज’ की भूमिका निभाने लगता है। प्रदर्शन पर प्रदर्शन को मीडिया भूनाता है और आहता भावनाओं का जनभावना तैयार करता है। मीडिया भावनाओं को भड़काने का काम करता है।[6]
चित्र 5 और 6: एस. चंद्रमोहन की पेंटिंग्स (सौजन्यः प्रोफेसर शिवाजी पणिक्कर)
चंद्रमोहन की पेंटिग्स (चित्र 3-6) में टार्चर बॉडीज, दर्द, अघात और आत्मबलिदान को दिखाता है। पणिक्कर कहते हैं कि पेंटिंग में जन्म देने वाली देवी और भ्रूण हत्या के अपराध की ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की, और दूसरी पेंटिंग में बलिदान और दर्द को दर्शाया गया है जो क्रूस पर लटके यीशु के कटे-फटे शरीर को दर्शाती है। हालांकि यह सब एक तरह का घिसापिटा तरीका है। लेकिन फाइन आर्ट्स के स्टूडेंट्स विजुअल लैंग्वेज की खोज में इस तरह के प्रयोग करते रहते हैं। इनका इस्तेमाल भी यूनिवर्सिटी कैम्पस तक ही सीमित होता है। ऐसे में स्टूडेंट्स की पेंटिंग्स पर सेंसरशिप लागू करना उचित नहीं है। विवाद के बाद चंद्रमोहन ने ऐसे विषयों और अपनी कला को दर्शाने ऐसे तौर तरीकों से दूरी बना ली लेकिन उनके विजुअल्स के तेवर अब भी वही होते हैं। जिसमें अत्याचार, दर्द, पीड़ा, अघात, बलिदान सब शामिल है। लेकिन उनकी कला को कड़ी निगरानी से गुजरना पड़ता है। किसी के लिए इस तरह काम करना बहुत मुश्किल होता है। चंद्रमोहन के बाद के कामों में बड़े पैमाने पर प्रिंट और मोनोक्रोमैटिक टोन की ओर बढ़ते हुए देखा जा सकता है, जो उनके विषय के विभिन्न पहलुओं को उजागर करता है।
दिलचस्प बात ये है कि सेंसरशिप से खुद की मुठभेड़ से हम दो-चार होते हुए अंदर ही अंदर अपमानित होकर कुढ़ रहे होते हैं और अपने लहूलुहान बदन को सफेद कपड़े से ढंकते रहते हैं। विजुअल्स की सच्ची भावना की अनदेखी करने को कोशिश करते हुए हम सचेतन अपनी क्रिएटिविटी पर खुद फिल्टर लगाकर निगरानी करते हैं यानी अपने भीतर के दर्द के साथ खुद पर सेल्फ-सेंसरशिप लाद रहे होते हैं और दर्द-तकलीफों से भरे ऐसे विषयों को ढंकते हैं। हम अपनी दुविधा के साथ बिखरते हैं और उसका असर कला पर दिखता है। ऐसे कलाकारों की कला हम ‘खुद का खुद से अलगाव’ देखते हैं। जब पणिक्कर बंदिशों के बाद चंद्रमोहन की कला में आए बदलावों को एक किस्म का ‘समझौता’ या ‘अस्तित्व’ को बचाए रखने की रणनीति करार देते हैं। वह कहते हैं कि एक कलाकार के लिए अपने शरीर में बहने वाली ‘रक्त धारा’ को रोकने जैसा है। घुटन भरा है, जहां हम खुद पर पाबंदी लगा लेते हैं।
इस प्रकार की अंतर्निहित सेंसरशिप रणनीतियों का इस्तेमाल अक्सर राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया के हिस्से के रूप में, या अल्पसंख्यकों पर सांस्कृतिक नियंत्रण हासिल करने के लिए, या यहां तक कि सेना जैसे संस्थानों के भीतर भी किया जाता है, जहां अति-मर्दानगी की एक प्रमुख भाषा लोगों को हाशिए पर डाल देती है।
निष्कर्ष
उपरोक्त सभी मामले बताते हैं कि शब्दावली में एक निश्चित ऐतिहासिक बदलाव आ रहा है जो बताता है कि हमें दर्द में रहना है। सांस्कृतिक रूप में पीड़ा झेलनी है और अंततः हम तमाम किस्म के प्रयोगों से होकर गुजरेंगे। ऐसे दौर में ‘आहत’ भावनाओं या नाजुक भावनाओं को छूट मिलती है तो दूसरी तरफ वो खुद बहुत संवेदनशील हो जाती हैं। इस मामले में देखेंगे तो एक कलाकार भावना को ‘आहत’ करने इरादा रखता है और खुद इन सब को फील करने लायक नहीं बचता और उसे लोगों को भावनाओं का ख्याल नहीं रखने वाले शख्स के रूप में चित्रित किया जाने लगता है। ताप्ती गुहा ठाकुरता हुसैन के ‘बचाव के तरीके’ की समस्या के बारे में बात करती हैं जहां कलाकार अपनी कलात्मकता और रचनात्मकता का बचाव करने के बजाय इनसे लगातार दूर हो रहा होता है। हुसैन और चंद्रमोहन के दोनों मामलों का अध्ययन, यह देखने के लिए हैं अलग अल्पसंख्यक समुदाय से होने के बावजूद पब्लिक डोमेन में उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति और स्वायत्तता निशाने पर रहती है। देश में 20वीं शताब्दी के सबसे प्रसिद्ध कलाकारों में से एक हुसैन की समृद्धि और स्थिति उन्हें कोई कानूनी विशेषाधिकार प्रदान करने में असमर्थ थी और उन्हें निर्वासन की ओर ले गई। जबकि चंद्रमोहन का रुख स्टेट और विश्वविद्यालय के अन्याय के खिलाफ मुखर था, जब उन्होंने 2018 में विश्वविद्यालय के खिलाफ हल्लाबोल दिया था। हालांकि चंद्रमोहन को दक्षिणपंथियों और स्टेट के अत्याचार का शिकार माना गया और उनके विद्रोह को स्वाभाविक माना गया। हुसैन की तुलना में रचनात्मक अभिव्यक्ति के दमन की ओर ध्यान आकर्षित करने के चंद्रमोहन के प्रयास की तरफ शायद ही कोई सामूहिक विरोध था। अब यह फिर से देखना बहुत महत्वपूर्ण होगा है कि कैसे प्रभुत्वशाली जाति और क्लास आइडियोलॉजी का रचनात्मक अभिव्यक्ति या कला की भाषा का रुख बदल जाता है। हमें इसी लिहाज से हमें संरचनात्मक दमन का सामूहिक तौर विरोध करना चाहिए।
नोट
[1] धवन ऐसी शिकायतों को दबाने की रणनीति के तौर पर देखते हैं। ऐसे मुकदमें सेंसरशिप, आवाज को दबाने या कानूनों पेंचों से किसी को दबाने के इरादे से किया जाता है। धवन इसे ‘दबाने‘ की रणनीति से जोड़कर देखते हैं।
[2] हालांकि रामदेव और अन्य ने आईपीसी की धारा 295ए का खूब इस्तेमालि किया। यह उन मामलों के लिए सही है जहां सामाजिक संवेदनाओं को ठेस पहुंचाने या समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए कला के खिलाफ शिकायतें की जाती हैं।
[3] 2003 में छात्रों को डिपार्टमेंट में ही आंतरिक तौर पर सेंसरशिप झेलना पड़ा जब उन्होंने ‘Chandani Ba(ha)r टाइटल से मेले का आयोजन किया था। जबां सेक्सुआलिटी का सवाल उठा था। हालांकि सेल्फ-सेंसरशिप को लेकर छात्रों के बीच विरोध करने की एक संस्कृति रही है। लेकिन यह संस्कृति 2007 के बदली है। इसका असर कार्यक्रमों के आयोजनों मे देखने को मिलती है।
[4] कांत ने पेंटिंग की आलोचना की और विरोध में रैली आयोजित करने की धमकी दी और यह सब कुछ हिंदूवादी कार्यकर्ताओं, लोकल मीडिया और पुलिसकर्मियों की उपस्थिति में हुआ। चंद्रमोहन को गिरफ्तार कर लिया गया और बाद में उन्हें जमानत मिल गई। इसके बाद छात्रों ने विरोध के तौर पर प्राचीन भारतीय कला की तस्वीरों और खजुराहों के मंदिर की तस्वीरों की प्रदर्शिनी लगाई। फाइन आर्ट डिपार्टमेंट के डीन प्रोफेसर शिवाजी पणिक्कर को इस तरह की प्रदर्शनी पर रोक लगाने को कहा गया लेकिन छात्रों यह करने से नहीं रोका। इसकी वजह से पणिक्कर के खिलाफ अनुशानात्मक कार्रवाई करने की बात कही गई औऱ डिपार्टमेंट से हटा दिया गया। अभी दिल्ली में अंबेडकर यूनिवर्सिटी में सेवा दे रहे प्रोफेसर पणिक्कर ने इस कार्रवाई के खिलाफ कोर्ट गए।
[5] बड़ौदा को संस्कारी नगरी या सुसंस्कृत शहर का उपनाम दिया गया है। राज्य पर्यटन बोर्ड ने इस शहर को इसी तरह प्रचारित किया है। 2001 से राज्य की सत्ता पर काबिज बीजेपी ने 2007 में राज्य विधानसभा चुनाव भी जीते।
[6] मैंने यहां प्रचार शब्द का उल्लेख एक विशेष समुदाय की ‘आहत भावनाओं’ पर आधारित प्रचार के संदर्भ में किया है जो कुछ हितों के लिए आम सहमति बनाने के मकसद से प्रसारित किया जाता है। यह सार्वजनिक-स्मृति का वह हिस्सा भी है जिसे पूर्वव्यापी रूप से पुनर्प्राप्त किया जा सकता है और न्यायिक भाषा के बाहर सेंसरशिप के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
References
Atreyee Gupta, Research Log | For Every One of Them, There Are Ten of Us, Fri, 1 Jun 2007.
https://indiankanoon.org/doc/1704109/
https://www.roundtableindia.co.in/srilamanthula-chandramohan-a-criminal-now-who-is-responsible/
Kerstin Mey, Art and obscenity, IB Tauris, 2006.
Nalini Kannegal, Nivedita Kuttiah,“Chandni Ba(ha)r: Questions of Place, Space and Censorship”. Articulating Resistance: Art and Activism. New Delhi: Tulika, 2012. 279 – 295.
Rajeev Dhavan,”Harassing Husain: Uses and Abuses of the Law of Hate Speech”, Social Scientist , 2007: 28.
Rina Ramdev, Sandhya D. Nambiar, and Debaditya Bhattacharya, eds. Sentiment, politics, censorship: The state of hurt. SAGE Publications India, 2015.
Tapati Guha-Thakurta, The blurring of distinctions: The artwork and the religious icon in contemporary India, the Indian Postcolonial: A Critical Reader, 2010: 33- 41.
FFXPK6758G
*पारुल सिंह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के विजुअल स्टडीज डिपार्टमेंट स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स की पीएचडी कैंडिडेट हैं।