द न्यूयॉर्क टाइम्स ने मई 2016 में अपने सनडे मैगज़ीन में जो स्टोरी छापी थी, उसे मैं अब तक भुला नहीं पाया। हो सकता है कि आपको भी वह कहानी याद हो। यह ओबामा सरकार में “रणनीतिक संचार” के मुख्य सलाहकार बेन रोड्स की एक लंबी प्रोफ़ाइल थी। इसे डेविड सैमुअल्स नाम के एक रिपोर्टर ने लिखा था
इन दोनों की जोड़ी शानदार थी, मैं तो कहूंगा कि बिल्कुल एक-दूसरे के लिए मुफ़ीद। रोड्स, ब्रुकलिन में रहने वाले एक महत्वाकांक्षी गल्प लेखक थे, लेकिन अप्रत्याशित मोड़ पाकर, ओबामा के व्हाइट हाउस के अंदरूनी गुट का वे हिस्सा बन गए। सैमुअल्स एक फ़्रीलांसर थे जो आमतौर पर पॉपुलर कल्चर की शख़्सियतों को कवर करते थे। रॉक स्टार और बाक़ी बड़े-छोटे लोगों के बारे में लिखने वाले लोग आम तौर पर जिस चतुराई की चपेट में आते हैं, सैमुअल्स पर काफ़ी पहले वह रंग चढ़ चुका था।
जैसा कि उस प्रोफ़ाइल में सैमुअल्स ने बताया कि रोड्स का काम “अमेरिकी विमर्श में कुछ बड़े बदलाव को हवा देना था। रोड्स एक कहानीकार है जो राजनीति के पैकेट वाले एजेंटे को आगे बढ़ाने के लिए लेखन के उपकरण का इस्तेमाल करते हैं।“ सीधी भाषा में कहें तो एडवर्ड बर्नेज़ की तरह पेशेवर अंदाज में पैनी आलोचना करने वाला। मनगढ़ंत तथ्यों और सुखद अंत की बाज़ीगरी करने वाला एक कथाकार। “राजनीति के पैकेट में” का मतलब है हमारे सार्वजनिक विमर्श को वस्तु के रूप में बेचने की क्षमता।
रोड्स और उनके डिप्टी नेड प्राइस, सोशल-मीडिया के खिलाड़ी थे। सीआईए के पूर्व विश्लेषक और अब विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता प्राइस ने बिना किसी हिचक के बताया कि कैसे उन्होंने व्हाइट हाउस को कवर करने वाले संवाददाताओं, स्तंभकारों और अन्य लोगों के ज़ेहन में जनता की राय को प्रभावित करने वाली ख़बरें बैठाईं। उन्होंने कहा कि यह काम उन्होंने उसी तरह किया जैसे कोई किसान अपने बत्तख को चारा खिलाता है।
यहां उनके रोज़मर्रा के अभ्यास का लेखा-जोखा है:
“इस तरह की कुछ बेहतर स्थितियां होती हैं। हमारे कुछ साथी हैं। मैं कुछ लोगों से मिलता हूं..मैं उनका नाम नहीं लेना चाहता….और मैं उन्हें कुछ इशारा करूंगा और डॉट-कॉम प्रकाशन से जुड़े इनमें से बहुत सारे लोगों के बारे में मुझे अगली बात पता है कि उनके बहुत सारे फ़ॉलोअर होते हैं और वे खुद ही उस मैसेज को अपने तरीक़े से फैला देंगे।”
रोड्स ने सैमुअल्स को इस बारे में ज़्यादा व्यवस्थित तरीके से बताया:
“सभी अख़बारों में विदेशी ब्यूरो हुआ करते थे। अब ऐसा नहीं है। वे यह समझने के लिए हमें कॉल करते हैं कि मास्को या काहिरा में क्या हो रहा है। उनमें से ज़्यादातर, दुनिया की हर घटना की रिपोर्टिंग वॉशिंगटन में बैठे-बैठे करते हैं। हम जितने रिपोर्टर से बात करते हैं उनकी औसत उम्र 27 साल है और उनकी रिपोर्टिंग का कुल तज़ुर्बा इतना भर है कि वे राजनीतिक अभियानों के आस-पास रहते हैं। यह एक बड़ा बदलाव है। उन्हें वाक़ई कुछ भी नहीं मालूम।”
मैंने सैलॉन में टाइम्स के बारे में विस्तार से लिखा, जहां मैं उस समय विदेशी मामलों का स्तंभकार था। सैमुअल्स की रिपोर्ट की गुत्थी खोलने के लिए इतना कुछ था कि मुझे पता ही नहीं चल पा रहा था कि शुरू कहां से करूं। प्राइस के मामले में हम सही से काम करने वाले मीडिया की भूमिका और पब्लिक स्फ़ीयर की प्रकृति को समझने में पूरी तरह नाकाम रहे।
रोड्स ने एक व्हाइट हाउस प्रेस कॉन्फ़्रेंस के बारे में बताया, जिसमें नौजवान रिपोर्टर शामिल थे। वे पूरी तरह सामने से मिलने वाले कॉन्टेंट के ऊपर निर्भर थे। ख़ास तौर से राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में: “उन्हें वाक़ई कुछ भी पता नहीं था”
रोड्स और प्राइस, सत्ता के साथ मीडिया के संबंधों में कुछ महत्वपूर्ण बदलावों के बारे में बता रहे थे। मैं अपनी स्मृति के हिसाब से यह कतई नहीं कहूंगा कि किसी भी कालखंड में यह संबंध बहुत अच्छा था, लेकिन किसी एक मोड़ पर मीडिया नतमस्तक हो गया और हालात बद से बदतर होने लगे। मैंने रोड्स की प्रोफ़ाइल के बारे में लिखा, “जब आप टाइम्स या किसी भी दूसरे प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों में नियमित प्रेस रिपोर्ट पढ़ते हैं, तो आप पाते हैं कि सरकारी बुलेटिन बोर्ड पर पोस्ट करने वाले रिपोर्टर असल में क्लर्क हैं और जहां वे पब्लिश होते हैं उसे हम आज भी अख़बार कहते हैं।”
ऐसा कब हुआ? ऐसा क्यों हुआ? क्या अभी और बुरा होना बाकी था? हम यहां कैसे पहुंचे, दूसरे शब्दों में कहें तो हम कहां जा रहे हैं? ये मेरे सवाल थे। अभी भी ये सवाल बदले नहीं हैं। मैं यूक्रेन में काम कर रहे मुख्यधारा के संवाददाताओं के कवरेज को देखकर मैं फिर से इन सवालों पर विचार करने के लिए प्रेरित हुआ हूं। कहने को उन्हें बहुत कुछ कह सकते हैं, लेकिन उन्हें बत्तख कहना सही रहेगा।
एक ज़माने का द न्यूयॉर्कर
मेरा पहला अनुमान था कि अमेरिकी प्रेस दुनिया को जिस तरह से देखता है और उसके संवाददाता जो रिपोर्ट करते हैं, उसमें कुछ बदल रहा है। यह आस-पास देखी गई चीज़ों जैसा है। बंदूक़ की एक छोटी नली जैसा या हो सकता है कि कहने का यह तरीका उससे थोड़ा ही बड़ा हो। मैं उस समय जापान में रह रहा था, 1980 के दशक के अंत से 1990 के दशक के मध्य तक। इंटरनेशनल हेराल्ड ट्रिब्यून में योगदान देने के अलावा, मैं द न्यूयॉर्कर के लिए “लेटर फ्रॉम टोक्यो” लिख रहा था।
उस समय “लेटर्स फ्रॉम” की एक लंबी और सम्मानित परंपरा थी: पेरिस से जेनेट फ़्लेनर, पूरे यूरोप से जेन क्रेमर, लंदन से मोली पैन्टर-डाउन्स। बॉब शाप्लेन ने एशिया को अपना समूचा करियर समर्पित कर दिया। वे द न्यूयॉर्कर के “सुदूर पूर्व संवाददाता” थे और उन्होंने एशिया की तकरीबन हर राजधानी से पत्र लिखे। शाप्लेन ने ही अपने करियर और ज़िंदगी के आख़िरी समय में यह कमान मुझे सौंपी।
द न्यूयॉर्कर के विदेशी कवरेज को ‘लेटर्स फ़्रॉम’ के मामले में जो चीज़ अलग करती थी, वह थी उसकी प्रस्तुति। जिन लोगों ने इसे लिखा वे न सिर्फ़ उन जगहों पर रहते थे, बल्कि काफ़ी लंबे समय से रहते थे। वे वहां के आस-पास की चीज़ों को पूरी तरह और यहां तक कि गहराई से जानते थे। उन्होंने बाहरी नज़र से नहीं लिखा, वे उसी जगह पर उन्हीं लोगों को कवर करते हुए बहुत कुछ सूंघते रहते थे। जैसा कि वे कहा करते थे, उनके लिखे को पढ़कर आपको अंदरखाने की बात पता चलती थी। आस-पास की छोटी-छोटी चीज़ें, सड़कों की बातें। दैनिक अख़बारों में आप जो कुछ पढ़ते हैं, वह उससे कहीं ज़्यादा गहराई वाली सामग्री थी।
मेरा न्यूयॉर्कर बॉब गोटलिब का न्यूयॉर्कर था। गोटलिब ने मशहूर विलियम शॉन की जगह संपादक की कुर्सी संभाली थी। बॉब इस पत्रिका के ख़ास अंदाज़ को सुरक्षित रखते हुए इसे नया कलेवर देना चाहते थे। फिर बॉब की जगह टीना ब्राउन को यह ज़िम्मेदारी थमा दी गई, जिनकी रुचि चकाचौंथ और “सनसनी वाली बातों” में थी। हर चीज़ में सनसनी होनी चाहिए। वह ऐसी थी कि डेविड सैमुअल्स को टीना की प्रोफ़ाइल लिखनी चाहिए थी। उन्होंने पत्रिका को बर्बाद कर दिया। उन्हें गए अब ज़माना हो गए, लेकिन न्यूयॉर्कर कभी भी टीना के किए से उबर नहीं पाई।
मैंने टोक्यो से जो लेटर भेजे थे टीना के संपादकों ने उसे स्वीकार किया, लेकिन वे कभी छपे नहीं। कुछ साल बाद, द न्यूयॉर्कर के साथ काम करने के सिलसिले में आख़िरी बार, मैंने शिंतारो इशिहारा की प्रोफ़ाइल करने का प्रस्ताव भेजा। इशिहारा टोक्यो प्रीफ़ेक्चर के गवर्नर, एक कुशल नाविक, और अमेरिका-विरोधी विचारों से भरे परम राष्ट्रवादी थे। मैं इशिहारा को अमेरिका विरोधी खटास की वजह से ही पसंद करता था। हालांकि, साक्षात्कार देते समय वह अपना हाथ ठीक वहां समेटते थे जब आपको लगता था कि ठीक अगले पल ये मुझे बंदूक़ या कोड़े से मार न दें।
द न्यू यॉर्कर ने मेरे इस प्रस्ताव में कोई दिलचस्पी नहीं ली। कुछ महीने बाद इसी पत्रिका में उसी शिंतारो इशिहारा की एक प्रोफ़ाइल छपी, जिसे न्यूयॉर्क से आकर किसी रिपोर्टर ने लिखा था। रिपोर्ट से यह साफ़ दिख रहा था कि इस विषय के बारे में रिपोर्टर की समझ सतही थी और जापान के बारे में उसकी जानकारी भोथरी थी।
मेरा जो अनुमान था वह द न्यूयॉर्कर के विदेशी कवरेज को देखकर और पुख़्ता हो गया। इसे अब उन संवाददाताओं की तलाश नहीं रहती थी जो विदेशों में लंबे समय से रह रहे हों और उसकी जड़ें समझते हों, बल्कि यह बाहर से किसी रिपोर्टर को भेजकर कोई स्टोरी करवाने लगी। मैं बस एक मोड़ के बारे में इशारा किया था, लेकिन इसका असर बहुत व्यापक था। एक ऐसी पत्रिका जो विदेशों की ख़बरें “अंदर से बाहर” लाने के लिए मशहूर थी, वह अब चाहने लगी कि रिपोर्ताज ऐसी हो जिसमें अमेरिकी भावना को प्रमुखता दी गई हो। अब यह बाहर से अंदर की ओर देखने जैसा हो गया। मैं इसे अब अमेरिका के दूसरों को देखने के तरीके में बदलाव के शुरुआती संकेत के रूप में देखता हूं।
जैसा वॉशिंगटन से दिखे
1995 में जब, द न्यूयॉर्कर के लिए मेरी भेजी गई आख़िरी कुछ रिपोर्ट अप्रकाशित रह रही थी, उसी समय टॉम फ़्रीडमैन ने “विदेश मामलों” पर क़ब्ज़ा कर लिया। वह द न्यूयॉर्क टाइम्स में लंबा लॉलम लिखने लगे जिसे मैं उस अख़बार के इतिहास में बहुत शानदार इतिहास नहीं कहूंगा। जलेबी छानने वाले उनके अंदाज़ और उदारवादी सनक के साथ फ़्रीडमैन का आगमन, उस दौर की एक और पहचान था। उस पन्ने पर हफ़्ते में दो बार बिग टॉम के कॉलम ने स्पष्ट कर दिया कि संवाददाताओं और टिप्पणीकारों के तरीक़े बदल रहे हैं। मैं उस समय इसे समझ नहीं पाया, लेकिन अब देख पा रहा हूं कि इसके ज़रिए अमेरिकी चेतना में बदलाव करने की कोशिश हुई।
मुझे विदेश मामलों का कॉलम कभी भी बहुत पसंद नहीं आया। सत्ता से इसका संबंध हमेशा मुझे नैतिक रूप से संदेहास्पद लगा। यह 1930 के दशक के आख़िर में “इन यूरोप” से शुरू हुआ और उसके बाद से हमेशा यह अख़बार का सबसे संवेदनशील कामों में शुमार रहा। अख़बार के युवा उत्तराधिकारी और शीत युद्ध के समय सीआईए के सहयोगी सीएल सुल्ज़बर्गर ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद के कुछ दशकों में उस जगह पर क़ब्ज़ा कर लिया जहां अमेरिका अपनी निश्चित दिशा तलाशने की कोशिश में जुटा था।
1980 के दशक में जब फ़्लोरा लेविस ने कॉलम लिखना शुरू किया, तो उन्होंने एक महाद्वीप को नाटो और अमेरिका के लिए बाहें फैलाने के लिए मुफ़ीद करार दिया। अभिलेखागारों में आपको इस तरह के कुछ-कुछ कॉलम मिल सकते हैं जिसमें पहुंच का विस्तार करने का संकेत दिया गया है, लेकिन आपको कोई ऐसा कॉलम नहीं मिलेगा जिसमें यह स्पष्टता के साथ लिखा गया हो।
ऐसे लोगों को फिर से पढ़ते हुए, मैं फिर भी कुछ बातों से प्रभावित होता हूं। उनके भीतर जटिलता और विविधता को लेकर सराहना का भाव था। न सिर्फ़ पश्चिमी गठजोड़, बल्कि इसके बाहर अंधेरी दुनिया को लेकर भी। काम कितना भी बुरा क्यों न हो सुल्ज़बर्ग के कॉलम में घिसी-पिटी उक्तियों की भरमार होती थी जो उन्होंने कई साल से विदेशों में रहते हुए और वहां काम करते हुए सीखी थी। वे अमेरिका के दबदबे वाली सदी के दौरान अमेरिकियों द्वारा महसूस किए गए विश्वास को दिखाते हैं। लेकिन शायद ही कभी, वे सही साबित हुए या इसमें उन्हें क़ामयाबी मिली। उन्हें कुछ भी साबित करने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
जब फ़्रीडमैन को विदेश मामलों की ज़िम्मेदारी मिली, तो उन्होंने पहला काम यह किया कि कॉलम को उन्होंने वॉशिंगटन में केंद्रित कर दिया, बाहर से लिखना पूरी तरह बंद। दूसरा काम उन्होंने यह किया कि कुछ दोस्तों और परिचितों को छोड़कर, बाकी सबकी सुनना बंद कर दिया। द लेक्सस एंड द ओलिव ट्री में नवउदारवादी वैश्वीकरण के अगुवा अमेरिका का उन्होंने गुणगान किया है और खुद को उन्होंने “तेवर वाले पर्यटक” करार दिया। उन्होंने 1999 की उस किताब में बताया कि उनके पसंदीदा स्रोत बॉन्ड ट्रेडर्स और हेज फंड मैनेजर थे।
“आज के वैश्विक गांव में लोग जानते हैं कि जीने का एक और तरीका मौजूद है। वे अमेरिकी जीवन शैली के बारे में जानते हैं और उनमें से ज़्यादातर लोग इसमें अपना बड़ा हिस्सा पाना चाहते हैं जिसमें सारी सुविधाएं मौजूद हों। कुछ लोग इसे पाने के लिए डिज़्नी वर्ल्ड जाते हैं, तो कुछ उत्तरी मलेशिया के केंटकी फ़्राइड।“ यह विदेश मामलों की कुर्सी पर बैठे बिग टॉम का बयान था। यह हमारी सीमाओं से परे बाक़ी दुनिया के लिए अमेरिका के बयान का पतन है। कहें, तो “रीयल टाइम” में पतन
मुझे यह बात जोड़नी चाहिए कि विदेश मामलों का कॉलम अब पूरी तरह ख़त्म हो गया था। टाइम्स ने इसे सालों पहले दफ़्न कर दिया। आख़िरकार इन लेखकों के कॉलम कोई क्यों पढ़ना चाहेगा?
अगर मेरा विषय अमेरिकी पत्रकारों की पेशेवर तौर-तरीक़ों में होने वाली क्रमिक चूकों पर है, तो वहां ‘ख़ुद के मौजूद होने’ की वजह से इसके बारे में अपने-आप नहीं सोचा जा सकता। उनके अपराधों को दुनिया के प्रति हम लोगों की आंखें मूंद लेने के लक्षण के तौर पर समझा जा सकता है, जो मेरी नज़र में जर्मनी में बर्लिन की दीवार टूटने और अमेरिका द्वारा जगह-जगह फ़तह हासिल करके जश्न में डूबने के समय से शुरू हुआ था। उस समय से इस बात के मायने धीरे-धीरे कम से कमतर होते चले गए कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं, क्या करते हैं और उनकी महत्वाकांक्षाएं क्या-क्या हो सकती हैं। चीजों को देखने का एकमात्र नज़रिया, अमेरिकी चश्मा रह गया।
मैंने जिन मामलों के बारे में बताया, वे हालात के बद से बदतर होते जाने के शुरुआती संकेत थे। लेकिन, अगर वे लक्षण हैं, तो वजहें भी रही होंगी। यह मीडिया की वह ताक़त है जिसका इस्तेमाल ग़लत उद्देश्य के लिए किया जाता है। 1990 के दशक के बाद से हम में से ज़्यादातर लोग दूसरों के प्रति दिन-ब-दिन उदासीन होते चले गए। ऐसा समाज के बड़े हिस्से से साथ हुआ है और प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इसे साबित किया है।
पत्रकारिता पर 9/11 का असर
11 सितंबर, 2001 की घटना ने हमारे मीडिया की प्रथाओं को फिर से पूरी तरह बदल दिया। उस त्रासदी के 15 साल बाद, बेन रोड्स और नेड प्राइस अपने बत्तखों को दाना खिला रहे थे। उसके छह साल बाद, विदेशी घटनाओं के हम बदतर प्रेस कवरेज देख रहे हैं जो यूक्रेन में तैनात संवाददाताओं को देखकर मुझे समझ में आया।
11 सितंबर, 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हुए हमलों के कुछ दिनों बाद, जॉर्ज डब्ल्यू बुश के प्रेस सचिव ने वाशिंगटन में अमेरिका के प्रमुख संपादकों के साथ एक कॉन्फ़्रेंस कॉल बुलाई। ऐरी फ़्लेचर का इरादा समाचार पत्रों और टीवी पत्रकारों के साथ प्रशासन द्वारा ऐलान किए गए “वॉर ऑन टेरर” के एजेंडे के मुताबिक़ ढालना था। उन्होंने उन पत्रकारों से उन कवरेज को ब्लैक आउट करने के लिए कहा जिससे किसी भी तरह इस बात का पता चल सके कि अमेरिका किस तरह इस युद्ध को छेड़ेगा। फ़्लेचर सीआईए के ऑपरेशन और बाक़ी राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र के काम करने के तरीक़ों को लोगों की नज़र से छुपाने के लिए ख़ास तौर से उत्सुक थे। उस दिन कॉन्फ़्रेंस में मौजूद सभी लोगों ने बुश प्रशासन का तत्परता के साथ सहयोग किया।
कुछ साल बाद, फ्लेचर कॉल के समय न्यूयॉर्क टाइम्स की वाशिंगटन ब्यूरो प्रमुख जिल अब्रामसन ने हमें वह बताया जिसे उस बातचीत का इकलौता सही ब्योरा कहा जा सकता है। 2014 में पश्चिमी न्यूयॉर्क में ख़ुद को और बेहतर बनाने के उद्देश्य से लोगों द्वारा शुरू किए गए चौटाक्वा इंस्टीट्यूशन में एक लंबे भाषण के दौरान उन्होंने कहा, “बातचीत का उद्देश्य प्रेस के साथ एक समझौता करना था कि हम ऐसी कोई भी स्टोरी प्रकाशित नहीं करेंगे जिसमें हमारे खुफ़िया कार्यक्रमों के स्रोतों और तरीक़ों के बारे में विस्तार से बताया गया हो। यह 9/11 के कुछ ही दिनों बाद हुआ था। इस तरह की जानकारी को रोकना मुश्किल नहीं था। और कुछ वर्षों के लिए, असल में अगले कई साल तक, मुझे नहीं लगता कि प्रेस ने ऐसी कोई भी स्टोरी प्रकाशित की जिससे बुश का व्हाइट हाउस ज़रा भी परेशान हुआ हो या फिर जिससे यह समझौता भंग हुआ हो।”
मुझे यह सोचकर हैरत होती है कि “ऐसी जानकारी” के बारे में क्या जानते हैं! इसमें सीआईए द्वारा किए गए अपहरण शामिल हैं, जिन्हें बाद में सरकार ने सच पर पर्दा डालने के लिए “असाधारण कार्रवाई” क़रार दिया। साथ ही, उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए “ग़ुमनाम साइट्स” भी शामिल हैं, जहां ज़ुर्म साबित हुए बग़ैर क़ैदियों को अमानवीय यातनाएं दी गईं। बाद में पता चला कि “ऐसी जानकारी” में राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी की वह पहल भी शामिल है जिसके तहत अमेरिकियों और अपनी ज़रूरतों के हिसाब से ग़ैर-अमेरिकियों की अंधाधुंध निगरानी की गई।
मुझे हैरत होती है क्योंकि अगर प्रेस के सबसे प्रभावशाली संपादकों ने ऐरी फ़्लेचर को दो टूक यह कहने के इरादा रखते कि उन्हें क्या नहीं करना है, जैसा बर्ताव उन्हें असल में करना चाहिए था, तो अमेरिकी सरकार और अमेरिकी मीडिया 11 सितंबर की घटनाओं के बाद ज़्यादा सम्मानजनक संस्थानों के रूप में सामने आ सकते थे।
जब व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव को इस तरह की वार्ता बुलाना उचित लगे जिसमें उपस्थित लोग अपने ही प्रकाशनों की सेंसरशिप करने को तैयार हो, तो यह साफ़ हो जाता है कि सत्ता के साथ मीडिया के संबंध में समझौता हो चुका है। इस मामले में यह समझौता राजनीति और प्रशासनिक स्तर पर हुआ। जिन संपादकों से फ्लेचर ने ऐसा करने की अपील की, उन्होंने बिना किसी झिझक के तुरंत ही “वॉर ऑन टेरर” पद का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। पेशेवर नैतिकता का यह एक ऐसा खुल्लमखुला उल्लंघन था जिसके दूरगामी नतीजे सामने आने वाले थे। युद्ध की अनिवार्यता के दौर में सत्ता के साथ मीडिया की इस जुगलबंदी ने दोनों के बीच के संबंध को निश्चित तौर पर बदल ही दिया।
मैं सर्वसम्मति से स्वीकार किए गए इस प्रस्ताव को 2001 के बाद के दौरान, अमेरिकी मीडिया और विदेश मामलों के कवरेज के पतन के निर्णायक मोड़ के रूप में देखता हूं। इसे समझने के लिए, संक्षेप में इस बात पर विचार करना ज़रूरी है कि लोअर मैनहटन और वाशिंगटन में गर्मियों के आख़िरी दिनों में उस सुबह, अमेरिका और अमेरिकियों के साथ क्या हुआ था।
11 सितंबर ने “अमेरिकन सदी” के अप्रत्याशित रूप से ख़ात्मे को रेखांकित किया और यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिकियों के बीच ख़तरे का भाव पैदा किया। मैंने इससे पहले यहां और दूसरी जगहों पर भी इस बात को कई बार रखा है। संक्षेप में कहें तो टावरों के विध्वंश में मारे गए 3000 लोगों के दुख से इसका कहीं गहरा असर, लोगों के मनोवैज्ञान पर पड़ा।
उस दिन अमेरिका के नीति-नियंता अभिजात्य वर्ग ने रक्षात्मक मुद्रा धारण कर ली थी। वे एक झटके में दुनिया से दूर और इसके ख़िलाफ़ हो गए। बुश प्रशासन के भीतर, “इस्लामोफ़ासीवाद” और ऐसी ही अन्य बेतुकी धारणाओं के साथ कही गई अपनी सभी बातों में दूसरी संस्कृति से खुले तौर पर नफ़रत झलकती थी। ज़्यादातर अमेरिकी भी उसी तरह के हो गए। जब जॉक शिराक ने इराक़ के ख़िलाफ़ बुश के “समान इरादे वाले गठबंधन” में फ़्रांस को शामिल करने से इनकार कर दिया, तो फ़्रांसीसी रातोंरात “पनीर खाने वाले ऐसा बंदर बन गए जिन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया हो”। यह वाक्यांश अमेरिकी उन्माद को परिभाषित करने के लिए हमेशा से मेरा पसंदीदा रहा है। “फ़्रीडम फ्राइज़” याद है?
दुनिया के तरफ़दार से दुनिया के विरोधी बनने तक
दूसरों के प्रति बैर का यह भाव अमेरिकियों के मन में 17 वीं सदी से दबा हुआ है और समय-समय पर यह उभरकर सामने आ जाता है। 19वीं शताब्दी में आयरिश अज्ञानी थे, इटैलियन चिकने थे, और चीनी पीले और संकट पैदा करने वाले थे। 11 सितंबर की घटना ने अमेरिका को एक बार फिर इसी नाले में डुबो दिया। कुछ वर्षों तक मुसलमानों को “रैगहेड्स” बुलाना, उन्हें बिल्कुल सही लग रहा था।
दुनिया से दूर जाने और इसके ख़िलाफ़ होने का यह बदलाव, देश के रुख के हिसाब से काफ़ी अफ़सोसजनक है। लेकिन यह हमारे प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों और ब्रॉडकास्टरों के लिए रसातल में जा रही विदेशी मामलों के कवरेज के लिए काफ़ी भाग्यशाली साबित हुआ। यह कवरेज मेरे काफ़ी लंबे जीवनकाल का सबसे बदतर तज़ुर्बा रहा है, लेकिन इस बिंदु पर सावधानी का एक नोट ज़रूरी है: मैंने पहले भी कई बार अमेरिकी मीडिया के विदेशी मामलों के कवरेज को अपनी ज़िंदगी में देखा गया सबसे बदतर कवरेज बताया है, लेकिन यह गिरावट बेहतरह है और दिन-ब-दिन यह और तेज़ होती जा रही है।
ऐसा क्यों है? मैं 11 सितंबर, 2001 को ही प्रस्थान बिंदु क्यों मान रहा हूं?
जिल अब्रामसन ने द टाइम्स के कार्यकारी संपादक के रूप में काम किया। हालांकि ढाई साल बाद उन्हें निकाल दिया गया और इसके साथ ही टाइम्स के साथ उनका सफ़र ख़त्म हो गया। उन्हें अगर बहुत क्षमतावान पत्रकार न भी कहें, तो वह बेहद ऊंचे मुकाम वाली पत्रकार थीं। चौटाक्वा के दर्शकों को उन्होंने ऐरी फ़्लेचर की आपत्तिजनक मांगों को गंभीरता से लेने की वजहें समझाते हुए कहा, “पत्रकार भी अमेरिकी हैं। मुझे उम्मीद है कि आप लोगों में काफ़ी लोग मेरी ही तरह ख़ुद एक राष्ट्रभक्त मानते होंगे।”
जब भी मैं उनके बारे में सोचता हूं तो ये दो वाक्य मुझे चौंका देते हैं। एक मायने में वे उन प्रकाशकों, संपादकों, स्तंभकारों, संवाददाताओं और पत्रकारों की बातों को हूबहू दोहारते हुए लग रहे थे, जिनके बारे में कार्ल बर्नस्टीन ने 20 अक्टूबर, 1977 को रोलिंग स्टोन के संस्करण में खुलासा किया कि उनमें से 400 लोग सीआईए के सहयोगी थे। न्यूयॉर्क हेराल्ड ट्रिब्यून और बाद में वॉशिंगटन पोस्ट के स्तंभकार जो अलसॉप ने शीत युद्ध के दौरान के अपने करतूतों के बारे में कहा, “जब मुझे लगा कि काम ठीक है, मैंने उनके लिए बहुत सारी चीज़ें की हैं। मैं इसे एक नागरिक के रूप में अपना कर्तव्य निभाना कहता हूं।”
क्या कभी कुछ नहीं बदलता? क्या अब्रामसन जैसे लोग कभी कुछ सीखते हैं?
अलसॉप के दौर से लेकर अब्रामसन और हमारे समय तक, लोग ऐसा नहीं सोच पाए हैं कि एक अच्छा अमेरिकी होने के लिए सिर्फ़ इतना ज़रूरी है कि आप अच्छे संपादक या रिपोर्टर बन जाएं। इसके बजाय, वे तर्क देते हैं कि संकट के समय में यह ज़रूरी है कि मीडिया अपने मौलिक सिद्धांतों को परे रख दें, ऐसे जैसे कि यह कोई जैकेट हो।
“जो कुछ हुआ वह मायने नहीं रखता। सूत्रों के बीच संतुलन रखना, अब मायने नहीं रखता। सटीकता अब मायने नहीं रखती। चश्मदीदों की अब कोई अहमियत नहीं है। सिर्फ़ पुष्टिकरण मायने रखता है।”
अंतिम बात: शीत युद्ध के दौरान अमेरिकी मीडिया की सबसे बड़ी ग़लती, पिछली सभी ग़लतियों से बड़ी ग़लती यह थी कि वह नए राष्ट्रीय सुरक्षा मॉडल के राष्ट्र बनाने की मुहिम में स्वेच्छा से शामिल हो गया। अलसॉप इसी के बारे में बता रहे थे। मेरे हिसाब से इसे 1948 या 1949 में पूरा कर लिया गया। दूसरे शब्दों में कहें, तो ट्रूमैन प्रशासन के घोषित नए धर्मयुद्ध की पीठ पर प्रेस और ब्रॉडकास्टर कमोबेश तुरंत सवार हो गए।
और यही बात जिल अब्रामसन 65 साल बाद चौटाक्वा में कह रही थीं। और 11 सितंबर के तुरंत बाद भी अमेरिकी मीडिया ने वही किया। वह राष्ट्रीय सुरक्षा के एजेंडे वाले राष्ट्र-राज्य की पीठ पर एक बार फिर फ़ौरन सवार हो गया।
अब्रामसन के समय तक, अमेरिका ने एक वैश्विक साम्राज्य फैला रखा था जो अलसॉप और उनके भाई स्टीवर्ट के लेखन के समय सिर्फ़ शिशु अवस्ता में था। यह भेद महत्वपूर्ण है। इन सबसे काफ़ी पहले, 19वीं सदी के आख़िर में पैदा हुए प्रतिबद्ध अराजकतावादियों में से एक रुडोल्फ़ रॉकर ने नैशनलिज़्म ऐंड कल्चर (राष्ट्रवाद और संस्कृति) नाम किताब प्रकाशित की। अब इस किताब को ढूंढ़ना बेहद मुश्किल है और अगर मिल भी जाए, तो यह काफ़ी महंगी है। यह किताब हमें याद दिलाती है: जब एक साम्राज्य अपनी शक्ति को हासिल और इसका इस्तेमाल करती है, तो उसे अपनी सेवा के लिए संस्कृति के सभी संस्थानों की किसी न किसी तरह ज़रूरत पड़ती है। ऐसा नहीं करने वाला टिक नहीं पाता। रॉकर ने “संस्कृति” को बहुत व्यापक अर्थ में देखा है। उनके दिए गए अर्थ के हिसाब से देश के भीतर मौजूद मीडिया एक सांस्कृतिक संस्थान है और उन्होंने जो कड़वा सच लिखा था, वह इन सबके ऊपर लागू होता है।
11 सितंबर के बाद, पहले सूक्ष्म रूप से और फिर खुले तौर पर एक के बाद एक सरकार ने यह समझाने की कोशिश की कि दुनिया को देखने का सिर्फ़ एक ही नज़रिया है- अमेरिकी नज़रिया। साथ ही, इसके लिए किसी और से सीखने-समझने की ज़रूरत नहीं है। मेरा बहुत मन कर रहा है कि इस पैराग्राफ़ को पूरा करने के लिए मैं अपने पाठकों को आमंत्रित करूं, लेकिन यह विनम्रता नहीं होगी। तो, सोचने का यह तरीका या सोचने से इनकार करना, अनिवार्य रूप से रक्षात्मक, चिंताजक और अनिश्चितता की गोद में बैठने जैसा है। अगर मुख्यधारा के मीडिया की 2001 के बाद के विदेशी कवरेज की गुणवत्ता में आई गिरावट को यह अब भी नहीं जताता, तो संकट अब दरवाज़े पर पहुंच चुका है।
ऑस्ट्रेलियाई-ब्रिटिश संवाददाता और फ़िल्म निर्माता जॉन पिल्गर ने अमेरिका द्वारा कीव में 2014 के तख्तापलट की आग में तेल डालने पर कहा, “यूक्रेन के बारे में सच्चाई का दमन, मेरी याददाश्त में किसी ख़बर पूर्ण ब्लैकआउट की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है।” तो सुनिए, मुझे लगता है कि पिल्गर को आठ साल बाद अब इस तरह के “पूर्ण” ब्लैकआउट की कई और घटनाएं मिल जाएंगी।
जिन पाठकों और दर्शकों ने अपनी जानकारी के स्रोत को मुख्यधारा के मीडिया तक सीमित रखा, उन्हें फरवरी 2104 के तख़्तापलट के बाद यूक्रेन की घटनाओं के लिए सिर्फ़ काली टोपी और सफ़ेद टोपी वाला पक्ष मिला। यही नहीं, उन्हें यह भी पता चला कि वहां तख़्तापलट नहीं हुआ था, बल्कि वह एक “लोकतांत्रिक क्रांति” थी। यह ठीक वैसा ही था जैसा वॉशिंगटन लोगों को बताना चाहता था।
आठ साल के इस अभियान में तख़्तापलट में अमेरिका की भूमिका, तख़्तापलट करने वालों में नव-नाज़ियों की हिस्सेदारी, विधिवत रूप से निर्वाचित राष्ट्रपति के तख़्तापपलट का अलोकतांत्रिक तरीक़ा, पूर्वी प्रांतों के नागरिकों पर नई सरकार द्वारा बाद में की गई बमबारी के बदले रूसी वक्ताओं और आलोचना करने वाले मीडिया के प्रति संपूर्ण पूर्वाग्रह, विपक्ष के राजनेताओं की हत्याएं, वॉशिंगटन द्वारा यूक्रेन में लंबे समय से रूस को पीछे खदेड़ने की मुहिम, इन सबको कवरेज में पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
जिस समय यूक्रेन में संकट भड़का, उस समय सीरिया में चल रहे युद्ध को दो साल से ज़्यादा हो चुका था। मैं इसे गृहयुद्ध नहीं कह रहा हूं क्योंकि यह गृहयुद्ध नहीं था। 2011 के आख़िर में दमिश्क सरकार के ख़िलाफ़ जो वैध प्रदर्शन के रूप में शुरू हुआ, अमेरिका ने उसे 2012 की शुरुआत में एक सशस्त्र संघर्ष में बदल दिया। मोटे तौर पर उसी समय हिलरी क्लिंटन के सलाहकार जेक सुलिवन ने विदेश मंत्री को कहा: अच्छी खबर है, सीरिया में अल-क़ायदा हमारे पक्ष में आ गया है।
वहां मौजूद होने की कल्पना कीजिए
तख़्तापलाट की बमुश्किल गुप्त कार्रवाई, धर्मनिरपेक्ष असद सरकार के ख़िलाफ़ जिहादी कट्टरपंथियों को उकसाना, बर्बर हत्याएं, अपहरण और सीआईए द्वारा जमकर पैसा बहाया जाना, इन सबको ध्यान में रखें, तो हमें लगता है कि सीरिया से रिपोर्ट करने वाले कुछ स्वतंत्र पत्रकारों का हम सहारा नहीं लेते, तो युद्ध की असली तस्वीर हम देख ही नहीं पाते। आप वहां होने भर की कल्पना करके देखें।
पश्चिमी प्रिंट मीडिया और टीवी नेटवर्क ने सीरिया संकट की जिस तरह रिपोर्ट की कि मेरी नज़र में मुझे लगा और मैं यह फिर से कहना चाहता हूं कि यह मेरी ज़िंदगी में महसूस किए गए अपमानों में सबसे भयावह था। पश्चिमी संवाददाता बेरूत या इस्तांबुल में बने रहे और टेलीफ़ोन, स्काइप या सोशल मीडिया के ज़रिए सीरिया के ज़मीनी स्रोतों के माध्यम से ख़बरें प्रसारित करते रहे।
और ये स्रोत कौन थे? विपक्ष के लोग या पश्चिम के ग़ैर-सरकारी संगठनों के सीरियाई कर्मचारी, मोटे तौर पर सबके सब असद विरोधी। लेकिन इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा- रिपोर्टिंग को निष्पक्ष बताकर पेश किया जाता रहा। ऐडमिरल पैट्रिक कॉकबर्न ने द लंदन रिव्यू ऑफ बुक्स में वर्षों पहले प्रकाशित एक बेहतरीन लेख में ये सारी चीज़ें बता चुके थे। यह तब की बात है जब एलआरबी में ऐसी चीज़ें छपा करती थीं।
और जब इन संवाददाताओं को सारगर्भित विश्लेषण की ज़रूरत पड़ी, तो ये किधर गए? अमेरिकी विद्वानों, थिंक टैंक के सदस्यों और वॉशिंगटन में सरकारी अधिकारियों की दहलीज़ पर। मुझे यह जोड़ना चाहिए कि यह अभ्यास सिर्फ़ सीरिया कवरेज तक सीमित नहीं है। बेरूत या बीजिंग डेटलाइन में भी अब अमेरिकी संवाददाता पहले अमेरिकियों के उद्धरण लेते हैं और फिर विदेश मामलों से जुड़े उसी सवाल पर ताड़ते रहते हैं कि अमेरिकियों का इस पर क्या रुझान है।
समूचे सीरिया कवरेज इसी अक्षम्य कारनामे पर टिकी हुई थी। मैं दो नाम लूंगा क्योंकि मुझे लगता है कि इस तरह के मामलों में नाम लेना ज़रूरी है। बेन हबर्ड और ऐन बरनार्ड, दोनों द न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता, ने इसकी अति कर दी थी। उन्होंने एक तरह से रिपोर्टर की इस ज़मात के अगुवा थे और वे हत्यारे जिहादियों को लगातार “उदारवादी विद्रोही” कहते रहे। यह शब्द अब कुख्यात हो चुका है। जिन्हें वे लोग ‘उदारवादी विद्रोही’ कह रहे थे वे समूचे सीरिया में फैले हुए थे और अगर रिपोर्ट करने के लिए ये चिंटू-मिंटू ग़लती से भी सीरिया में कदम रखे होते, तो मुमकिन है कि वही ‘उदारवादी विद्रोही’ इनका गला रेत दिए होते। ऐसा तब होता जब वे उस युद्ध को सच में कवर करने गए होते, जिसके कवर करने का उन्होंने दावा किया।
उस समय तक यह बहुत स्पष्ट हो चुका था कि ऐरी फ्लेचर की कॉन्फ़्रेंस कॉल से जो शुरू हुआ अब वह एक समेकित प्रक्रिया बन चुकी थी। जिस भी विदेशी संवाददाता की घटनाओं का लेखा-जोखा वॉशिंगटन के विचार से मेल नहीं खाता, उन्हें मुख्यधारा के मीडिया में रिपोर्ट करने का कोई मौक़ा नहीं दिया गया। जो घटना घटी, वह मायने नहीं रखती थी। रिपोर्ट में संतुलन मायने नहीं रखती थी। सटीकता के कोई मायने नहीं रह गए थे। चश्मदीदों के बयान हासिल करने के मायने ख़त्म हो चुके थे। सिर्फ़ और सिर्फ़ पुष्टिकरण मायने रखता था। स्वतंत्र प्रेस में मीडिया के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए काम करने वाले लोग हमेशा तिरस्कृत किए जाते हैं।
मूल रूप से, मैं पाता हूं कि मैंने एक बार फिर अपने समय में स्वतंत्र मीडिया की अहमियत पर ज़ोर दिया है। इसे हर दूसरे दिन रेखांकित नहीं किया जा सकता। मुझे लगता है कि अमेरिकी मीडिया का भविष्य उज्ज्वल है, भले ही इसकी मौजूदा संभावनाएं दयनीय हों। इस परिदृश्य को आसानी से या जल्दी से जीता नहीं जा सकता, लेकिन भविष्य इसी तरह के स्वतंत्र प्रकाशनों का है।
ओबामा व्हाइट हाउस में बेन रोड्स के ऑफ़िस से बेरूत के ब्यूरो के बीच की दूरी कितनी थी? मेरे हिसाब से एक फ़र्लांग भर। ओबामा के “संचार रणनीतिकार” के रूप में रोड्स और ख़बरों को घुमाने में उनके डिप्टी नेड प्राइस के समय सीरिया को कवर करने वाले संवाददाता जो काम कर रहे थे, अगर वे प्राइस के “साथी” की सूची में होते, तो उस समय भी ठीक वही काम कर रहे होते। वही काम का मतलब 2016 के प्राइस के उस बयान से है जिसमें उन्होंने कहा था कि विदेश मामलों को कवर करने वाले पत्रकार वही रिपोर्ट करते हैं जो वह उन्हें सिखाते हैं। बिल्कुल बत्तख को दाना डालने की तरह। इस समय, यूक्रेन संकट को कवर करने वाले संवाददाता भी ठीक यही काम कर रहे हैं।
अंतर सिर्फ़ एक ही है। इस बार दिखावट के लिए ये लोग ज़मीन पर दिख रहे हैं। इससे विदेश मामलों को कवर करने वाले पत्रकारों के लिए एक वीरता भरा नकली एहसास पैदा होता है। घटना वाली ज़मीन पर दिखना अब ज़रूरी लगता है। इसके अलावा और कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो सबके सब घर लौट आए हैं। बेढ़ंगे तरीक़े से और सुस्ती ओढ़कर। किसी को न तो कोई प्रेरणा मिली, न ही हिम्मत। सिर्फ़ कल से दफ़्तर जाने के नए दिनचर्या में उन्हें ढलना है।
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About Patrick Lawrence
Patrick Lawrence, a correspondent abroad for many years, chiefly for the International Herald Tribune, is a columnist, essayist, author and lecturer. His most recent book is Time No Longer: Americans After the American Century.
(https://mronline.org/2022/09/08/the-historic-collapse-of-journalism/)