अनिल चम़ड़िया
भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों को सूचना एवं जन संपर्क विभाग को चलाने की जिम्मेदारी देने की घटनाएं बढ़ रही है। मीडिया और सरकार के बीच रिश्तों के जो हालात दिख रहे हैं वैसी स्थिति में सूचना एवं जनसंपर्क का ‘सैन्यकरण ’ बहुत दूर की कहानी नहीं दिखती है। यह एक स्थायी राजनीतिक विचार के रुप में भी स्थापित हो रहा है।
भारत के चार प्रदेशों में सूचना एवं जन संपर्क के सबसे बड़े अधिकारी के रुप में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों की तैनाती से जुड़ी यह कहानी है। इनमे तीन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी व सहयोगियों की सरकार है। महाराष्ट्र में आई पीएस ब्रजेश सिंह सूचना एवं प्रचार के प्रमुख बनाए गए फिर उन्हें मुख्यमंत्री सचिवालय में लाया गया। महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी सहयोगी पार्टियों के साथ सरकार चला रही है जबकि छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी को जब 2023 में बहुमत मिला तो उसने कॉग्रेस के शासनकाल के दौरान सूचना एवं जनसंपर्क में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी को बहाल करने के फैसले को जारी रखा। क़ॉग्रेस और भारतीय जनता पार्टी द्वारा सरकार को चलाने के तरीके में फर्क केवल यह आया कि पुलिस अधिकारी के नाम बदल गए। कॉग्रेस ने 1997 बैच के आईपीएस दिपांशू काबरा को सूचना एवं जन संपर्क विभाग का प्रमुख बनाया था। उन्हें छत्तीसगढ़ संवाद का भी कार्यभार दे दिया गया था। भारतीय जनता पार्टी के सरकार में बैठते ही 4 जनवरी 2024 को 2006 बैच के आईपीएस मयंक श्रीवास्तव को दिपांशू काबरा की जगह बैठा दिया गया। उन्हें भी छत्तीसगढ़ संवाद का मुख्य कार्यकारी अधिकारी ( सीईओ) बना दिया गया। इससे उलट कर्नाटक में हुआ। जून 2023 में कर्नाटक में जब भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनाव में पछाड़कर कॉग्रेस ने सत्ता संभाली तो उसने आश्चर्य में डालने वाला जो आदेश जारी किया वह सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी की तैनाती थी। 1998 बैच के पुलिस अधिकारी हेमंत निंबालकर को समाचार एवं प्रसारण विभाग में आयुक्त बनाया गया। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री के अपने आखिरी कार्यकाल में आईपीएस आशुतोष प्रताप सिंह को सूचना एवं जन संपर्क विभाग की जिम्मेदारी सौपी थी।भारत के संसदीय ढांचे में क़ॉग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी नागरिक प्रशासन का ‘सैन्यकरण’ करने के मामले में एक दूसरे के प्रतियोगी माने जाते हैं।
शुरूआत दिल्ली से कॉग्रेस की सरकार ने की
कॉग्रेस ने दिल्ली में आईपीएस अधिकारी को सूचना एवं जनसंपर्क मामलों का प्रमुख बनाने की शुरुआत की थी। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के शुरुआती कार्यकाल में से आईपीएस उदय सहाय को सूचना एवं जन संपर्क मामलों की जिम्मेदारी सौपीं गई थी। 1998 बैच के उदय सहाय ने बताया कि दिल्ली में जब ( 2006-2009) आईपीएस के रुप में सूचना एवं जन संपर्क मामलों की जिम्मेदीरी देने के लिए विचार किया जा रहा था तब उसका विरोध हुआ था। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को उनके एक राजनीतिक सहयोगी ने पुलिस अधिकारी को इस संवेदनशील मामलों की जिम्मेदारी देने से रोकने की कोशिश की थी।लेकिन बताते हैं कि उस राजनीतिक सहयोगी ने सैद्धांतिक तौर पर आईपीएस को सूचना एवं जन संपर्क जैसे मामलों की जिम्मेदारी का विरोध और उसके दूरगामी असर की बात तो ठीक तरीके से रखी लेकिन वे इसके साथ अपने एक विश्वासपात्र को सूचना एवं जन संपर्क विभाग सौंपने के लिए भी ल़ॉबिंग कर रहे थे। लिहाजा उनका सैद्धांतिक विरोध कमजोर पड़ गया । वे सिद्धांत का अपने हितों में इस्तेमाल करना चाहते थे। आमतौर पर संसदीय राजनीति में ‘सिद्धांत’ व्यावहारिक राजनीति का खिलौना ही दिखते हैं।
उदय सहाय के पक्ष में यह तर्क मजबूत था कि वे उससे पहले प्रसार भारती में पांच वर्षों तक थे। प्रसार भारती सैद्धातिक तौर पर भारत सरकार के मातहत एक ऐसी स्वायात संस्था मानी जाती है जो सरकार के दूरदर्शन, रेडियों व अन्य मीडिया मंचों को संचालित व निर्देशित करती है। एक सार्वजनिक प्रसारण केन्द्र के रुप में सार्वजनिक क्षेत्र की मीडिया कंपनियों को विकसित करने की अवधारणा इसके पीछे रही है। दूसरा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से ही एक अधिकारी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के सबसे बड़े सहयोगी नौकरशाह के रुप में तैनात हुए थे और वे आईपीएस उदय सहाय की पृष्ठभूमि पर विचार करने के लिए जोर दे रहे थे। उन्हें मुख्यमंत्री के समक्ष एक अपवाद के रुप में प्रस्तुत कर रहे थे। उन्होने अपवाद के समर्थन में कई वैसे नोकरशाहों के नाम गिनाए जो अपनी पृष्ठभूमि से साहित्यकार व लेखक थे। इस तरह आईपीएस को सूचना एवं जनसंपर्क मामलों का प्रमुख आईपीएस अधिकारी को बनाने की एक मिसाल खड़ी हो गई। एक बुराई को सिद्धांत के रुप में स्थापित करने की रणनीति व्यवहारिक स्तर पर अच्छे व्यक्ति के उदाहरण से ही कामयाब बनाई जाती है।
समय से पूर्व सेवा निवृति ले चुके उदय सहाय आमतौर पर आईपीएस को सूचना एवं जनसंपपर्क की जिम्मेदारी देने का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि पुलिस सेवा में अधिकारियों का जो स्वभाव और रुझान एक प्रशिक्षण के साथ विकसित होता है , वह जन संपर्क और सूचना जैसे संवेदनशील कामों के लिए नहीं हो सकता है। उदय सहाय अकादमिक स्तर पर भी सूचना एवं संप्रेषण के सिद्धांतों के अध्येता है।
जन सूचना अधिकारी की भूमिका
एक जन सूचना अधिकारी की यह जिम्मेदारी होती है वह अपने संगठन व संस्था की तरफ से आम लोगों को सूचनाएं मुहैया कराएं। एक तरह से संस्था व संगठन और लोगों के बीच सूचना अधिकारी मुख्य कड़ी होते हैं। सरकार के विभागो के साथ भी यही बात लागू होती है। सूचना एवं जन संपर्क मामलों के लिए सरकार में विभाग स्थापित किए गए हैं। सरकार के विभागों में जिम्मेदारी संभालने वाले अधिकारियों को संवैधानिक विचारों एवं संस्कृति का ध्यान रखना पड़ता है।इस जिम्मेदारी को लेने वाले अधिकारियों के लिए यह जरुरी होता है कि वह संवेदनशील हो और सामाजिक विषयों के प्रति सजग हो। यदि मीडिया की स्वतंत्रता में सरकार व सरकार चलाने वाली राजनीतिक पार्टी के लिए हस्तक्षेप व दबाव जैसी स्थिति महसूस की जाती है तो वह सूचना अधिकारी की कार्य क्षमता पर प्रश्न चिन्ह् माना जाता है।
भारत में मीडिया की स्वतंत्रता की स्थिति और पुलिस को जन संपर्क की जिम्मेदारी
दुनिया भर में भारत में लोकतंत्र और मीडिया की आजादी पर प्रश्न खड़े हुए हैं। हर साल मीडिया की आजादी का बताने के लिए संस्थाएं थर्मामीटर का इस्तेमाल करती है। मीडिया की आजादी का तापमान भारत में 161 पर पहुंच गया था। इन संस्थाओं की जांच रिपोर्टे बताती है कि भारत मीडिया की आजादी के मामलों में लगातार कमजोर हो रहा है। मीडिया की आजादी को मापने के लिए बेहद संवेदनशील पैमाने होते हैं। उनमें सरकार का जन सूचना अधिकारियों के लिए बना ढांचा और वहां की संस्कृति मीडिया की आजादी के लिए महत्व रखती है। उसका अच्छा-बुरा असर उसी तरह से पड़ता है जैसे पर्यावरण के क्षेत्र में दूरदराज आने वाली आंधी तूफान का असर दुनिया के बड़े हिस्से में दिखने लगता है। मीडिया की आजादी का पर्यावरण किसी भी सरकार का जन सूंचना मामलों को लेकर नीतियों पर निर्भर करता है।
यहां उन पुलिस अधिकारियों के बारे में लोगों की राय और उनके कामकाज की पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो यह समझना मुश्किल नहीं रह जाता है कि जन संपर्क और सूचना के मामलों में पुलिस अधिकारियों की तैनाती के क्या उद्देश्य हो सकते हैं। महाराष्ट्र में ब्रजेश सिंह की संक्षिप्त कहानी है कि उनकी खाकी वर्दी को सूचना विभाग के लिए तब जरुरी माना जाने लगा भाजपा की सरकार चल रही थी। 1996 बैच के ब्रजेश सिंह को देवेन्द्र फणनवीस की सरकार में सूचना एवं जन संपर्क विभाग के सर्वोच्य पद महानिदेशक पर तैनात किया गया था और साथ ही उन्हें साइबर अपराध मामलों का भी प्रभारी बनाया गया था। देवेन्द्र फणनवीस भारतीय जनता पार्टी की बहुमत वाली सरकार में मुख्यमंत्री थे लेकिन जब एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में सरकार बनी तो ब्रजेश सिंह को मुख्यमंत्री के सचिवालय में प्रमुख सचिव के रुप में तैनात कर दिया गया । प्रमुख सचिव का पद आईएएस को दिया जाता रहा है।मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने 2010 बैच के आईपीएस आशुतोष प्रताप सिंह को छह वर्षों तक सूचना एवं जन संपर्क का प्रमुख बनाकर रखा। छत्तीसगढ़ में 2006 बैच के आईपीएस मयंक श्रीवास्तव को सूचना एनं जन संपर्क मामलों का प्रमुख बनाया गया है। कर्नाटक में जून 2023 में आईपीएस हेमंत निंबालकर को सूचना एवं जन संपर्क का आयुक्त बनाया गया। इनकी पत्नी ने कॉग्रेस के टिकट पर विधानसभा का चुनाव लड़ा था।
नौकरशाही में पृष्ठभूमि की अहमियत
भारत के संसदीय ढांचे में किन्हें कैसी जिम्मेदारियां दी जा सकती है, ब्रिटिश शासन के दौरान 1947 से पहले विचार विमर्श होता रहा है। अनुभवों के आधार पर उनमे सुधार की मांग भी उठती रही है। मसलन विश्वविद्यालयों में अकादमिक क्षेत्र की पृष्ठभूमि के लोगों का नेतृत्व होना चाहिए। जब राज्यों व केन्द्र की सरकार ने किसी नौकरशाह को विश्वविद्यालय का प्रशासनिक नेतृत्व करने के लिए तैनात किया तो उसकी आलोचना हुई। इसी तरह सेना को नागरिक प्रशासन से दूर रखने का सिद्धांत स्वीकार किया गया। लेकिन यह अनुभव किया गया कि जैसे जैसे सामान्य लोगों में बराबरी और लोकतंत्र की चेतना का विस्तार हो रहा है वैसे वैसे शासन प्रशासन में सैन्य प्रवृतियां विकसित की जा रही है। किसी न किसी रुप में। जैसे पुलिस की वर्दी और सेना की वर्दी एक जैसी दिखती है तो यह पुलिस द्वारा नागरिक प्रशासन में सैन्य प्रवृतियों को विकसित करना है। समाज की जिन पीढ़ियों ने 1947 के बाद की पुलिस व्यवस्था का देखा है वह महसूस कर सकते हैं कि किस हद तक पुलिस व्यवस्था का सैन्यकरण हुआ है। इसी कड़ी में यह देखा जा सकता है कि मीडिया की आजादी को लेकर समाज में आमतौर पर चेतना का विस्तार हुआ है । दूसरी तरफ मीडिया पर सरकारी शिकंजे का सीधे तौर पर या अप्रत्यक्ष शिकंजों का जाल सा बिछ गया हैं। ऐसा लगता है कि सूचना एवं जन संपर्क मामलों में आईपीएस अधिकारियों की तैनाती उसी दिशा में बढ़ने की योजना का हिस्सा है।
प्रदेशों में सरकार और मीडिया के बीच संवाद का जरिया सूचना एवं जन संपर्क मामलों का विभाग होता है। केन्द्रीय सरकार में प्रेस इंफोर्मशन ब्यूरों होता ( पीआईबी) है। इन मामलों का नेतृत्व राज्य सरकार की गैर पुलिस सेवा के अधिकारी या भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी करते रहे हैं। राज्यों में भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारियों को सूचना एवं जन संपर्क मामलों की जिम्मेदारी देने का असर मीडिया की आजादी के विचार पर साफ महसूस हुआ। छत्तीसगढ़ में आईपीएस अधिकारी ने सूचना एवं जन संपर्क विभाग की कमान संभालने के बाद मीडियाकर्मियों के लिए यह निर्देश जारी किया कि वे उनके कार्यालय में उनसे मिलने से पूर्व अपना मोबाईल फोन बाहर छोड़ दें। मध्यप्रदेश में एक वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि आईपीएस अधिकारी की संवाद और संप्रेषण की क्षमता बहुत नीचे स्तर की होती है। जन संपर्क विभाग का काम संवाद करना और नीतियों व कार्यक्रमों के माध्यम से सरकार की छवि को बेहतर बनाने की कोशिश करना। जबकि पुलिस अधिकारी सुरक्षा के इंतजाम की मानसिकता से दबा रहता है। उसका प्रशिक्षण अपराधियों की खोज करना, उनपर निगाह रखना और सुरक्षा व्यवस्था के सीमित दायरे में सिमटा होता है। ‘पत्रकारिता करने वालों के लिए वे बेहद मुश्किल समय होता है जब वे पत्रकारिता की जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए उनसे संवाद करने जाए जो कि उनकी पुलिसिया छानबीन का दिल दिमाग लगाकर बैठा हो।’
सुरक्षा और सूचना का घालमेल
आईपीएस को सूचना अधिकारी बनाने की प्रक्रिया में क्या कुछ गड़मड़ हो सकता है ,इसे इस तरह देखें। सरकार में मुख्यमंत्री सर्वोपरि होते हैं और जन संपर्क विभाग किसी भी सरकार के लिए बेहद संवेदनशील माना जाता है। ‘सुरक्षा और सूचना’ का धालमेल पहली नजर में ही दिखने लगता है।अनुभव भी किया गया कि आईपीएस सरकार की छवि बनाने में अपनी क्षमता नहीं दिखा पाते हैं।संवाद के लिए खुले दिमाग और खुले वातावरण की जरूरत होती है। सूचना अधिकारी मीडियाकर्मियों के साथ संवाद और सहयोग के लिए होता है। भय और बुरे की आशंका किसी भी संवाद में संभावना बनाने की भावना को ही खत्म
कर देता है।
प्रदेशों में आईपीएस अधिकारियों की जन संपर्क विभाग में तैनाती का विवरण
आईपीएस अधिकारी का नाम | राज्य | राजनीतिक सत्ता | |
उदय सहाय | दिल्ली | कॉंग्रेस | |
ब्रिजेश सिंह | महाराष्ट्र | भारतीय जनता पार्टी | |
आशुतोष प्रताप सिंह | मध्य प्रदेश | भारतीय जनता पार्टी | |
दीपांशू काबरा | छत्तीसगढ़ | कॉंग्रेस | |
मयंक श्रीवास्तव | छत्तीसगढ़ | भारतीय जनता पार्टी | |
हेमंत निंबालकर | कर्नाटक | कॉंग्रेस |