आदर्श स्थिति के उलट जमीनी हकीकत हमेशा काफी अलग होती है। न्यूटन के गति के नियम या आइंस्टीन के विशेष सापेक्षता अपने मूल में अपॉलिटिकल यानी अराजनैतिक हो सकते हैं। लेकिन चूंकि उनकी व्याख्या और इस्तेमाल इंसान की मर्जी से परे नहीं है। लिहाजा, उन्हें राजनीतिक कहना गलत नहीं होगा। हमारे पास गोला बारूद और परमाणु बम हैं। कोई भी जो इस विश्वास पर काम करता है कि विज्ञान पूरी तरह से राजनीतिक प्रभाव से मुक्त हो सकता है, उन्हें उन सैकड़ों वैज्ञानिकों से पूछने की जरूरत है जिनके काम को बाधित किया गया और सरकारों की दकियानूसी की वजह से उनकी रोजी-रोटी तक को खतरा पैदा हो गया।
इतिहासकार ऑड्रा जे. वोल्फ ने अपनी पुस्तक “फ्रीडम्स लेबोरेटरी: द कोल्ड वॉर स्ट्रगल फॉर द सोल ऑफ साइंस” में बताया है, विज्ञान और राजनीति का घालमेल परेशानी खड़ी करता है। सरकार और सेना द्वारा हथियार बनाने के लिए चुने गए वैज्ञानिकों को लेकर बहुत से विद्वानों ने काम किया। वोल्फ ने ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल में पाया कि कई सारे वैज्ञानिकों ने साम्यवादी दुनिया के खिलाफ दुष्प्रचार अभियानों में जाने-अनजाने में हिस्सा लिया। ये सारी वजहें शीत युद्ध की कूटनीतिक नीति और सांस्कृतिक संबंधों को आकार देने की वजह बनीं।
वोल्फ ने अपनी पड़ताल कुख्यात लिसेंको युग से शुरू की। वैज्ञानिकों को मोहरा बनाने की कहानी से पहले आपको ट्रोफिम डेनिसोविच लिसेंको के बारे में बताते हैं, जो यूएसएसआर यानी सोवियत संघ के कृषि विज्ञानी थे। वह लैमार्कवाद के बड़े समर्थक थे और जिन्होंने छद्म वैज्ञानिक विचारों के चलते मेंडल के आनुवांशिकी के सिद्धांत, यहां तक कि डार्विनियन इवोल्यूशन की वैज्ञानिक रूप से स्वीकृत कॉन्सेप्ट को भी खारिज कर दिया। जिसे बाद में लिसेंकोइज्म कहा गया। उनकी छद्म वैज्ञानिक धारणाएं स्टालिन और अन्य सोवियत अधिकारियों की नीतियों के साथ मेल खाती थीं। जेनेटिक्स पर लिसेंको का विचार आधिकारिक पार्टी लाइन बन गया। लिसेंको के गड़बड़ वैज्ञानिक आइडिया को मानने से इनकार करने वाले जीव वैज्ञानियों को पश्चिमी वैज्ञानिकों से ज्यादा खौफनाक हालात से गुजरना पड़ा। उन्हें सताया गया और कई को तो जान तक गंवानी पड़ी।
जब आनुवंशिकीविद् एच. जे. मुलर जैसे कुछ वैज्ञानिकों की लिसेंकोइज्म के खिलाफ अपने सहयोगियों को संगठित करने की कोशिश को अमेरिकी सरकार के अधिकारियों ने इसे अपने प्रोपेगैंडा का हथियार बना लिया। सवाल है कि क्या वैज्ञानिक स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति या धार्मिक पसंद अमेरिकी मूल्य के मूल में नहीं थी? अमेरिका में एक गुट था जिसका इस्तेमाल सोवियत समाज पर पश्चिम के सांस्कृतिक वर्चश्व को दिखाने के लिए किया जा सकता था। इससे भी बेहतर, यह अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों, सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कार्यक्रमों और एजुकेशनल प्रोजेक्ट के माध्यम से खुले तौर पर किया जा सकता था, जो स्वतंत्र, तथ्य-आधारित, गैर-राजनीतिक विज्ञान के पश्चिमी गुणों को बढ़ावा देने वाले और गुप्त तरीके से कथित ‘वैज्ञानिक संबंधों’ का इस्तेमाल करके खुफिया जानकारी एकत्र करता है। यह सब कुछ सोवियत संघ लौटने वाले वैज्ञानिकों को प्रभाव में लेकर किया जा सकता था।
वोल्फ ने सीआईए समर्थित नाकाम ‘वैज्ञानिक संबंधों’ और कामयाब कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम (सीसीएफ) और एशिया फाउंडेशन जैसे अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े सभी मामलों की तहकीकात की। ऐसे कई संगठन थे जो अपने स्वभाव में वैज्ञानिक नहीं थे, लेकिन उनके कार्यक्रमों में वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया, उनकी पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे, यहां तक उन्हें चलाने के लिए हर मुमकिन मदद भी की। लेकिन ये वैज्ञानिक इस बात से अनजान थे कि वे जिनके लिए यह सब कुछ कर रहे हैं उनका उद्देश्य निष्पक्ष वैज्ञानिक बहस नहीं है बल्कि उनका कोई छिपा हुआ एजेंडा है।
वोल्फ कहते हैं, इस अमेरिकी गतिविधि ने सीआईए के गुप्त एक्शन चीफ फ्रैंक विस्नर जैसे शीत योद्धा खड़े कर दिए। जिन्होंने सोवियत संघ के धारदार अंतरराष्ट्रीय प्रचार अभियान नेटवर्क कॉमिनफॉर्म का मुकाबला करने का एक किस्म का तरीका ईजाद कर लिया। वोल्फ लिखते हैं, “विज्ञान अमेरिका के मनोवैज्ञानिक युद्ध कार्यक्रमों में एक स्टोवअवे (विमान में फ्री यात्रा करने के लिए छिपने वाला शख्स) के तौर पर दाखिल हुआ…। विज्ञान के बारे में विचारों ने इस नई तरह की जंग छेड़ने और उन्हें जीतने के लिए नीति निर्माताओं की साजिशों को उजागर किया।
आजाद शोध और चर्चा वाले वैज्ञानिक आदर्श लोकतांत्रिक आदर्शों के साथ अच्छी तरह मेल खाते हैं जो अमेरिका के मनोवैज्ञानिक योद्धाओं को बढ़ावा देने के लिए काम कर रहे थे।
यह एक अनसुलझी और धुंधली कहानी की तरह का मामला है। यह सब संगठनों की अपनी कमी और तमाम गुटों के बीच खींचतान की वजह से हुआ। यह भी सच है कि यह सब कुछ सोवियत संघ के खिलाफ प्रोपेगैंडा को हवा देने के लिए किया गया। उदाहरण के तौर पर अमेरिका में कम्युनिस्ट विरोधी अभियान के दौर में अमेरिकी अधिकारियों ने विदेशी कम्युनिस्ट वैज्ञानिकों के संपर्क में रहने वाले अमेरिकी वैज्ञानिकों और साम्यवादी रुझान वाले अमेरिकी नागरिकों के खिलाफ मैककारन 1950 जैसे कानून बनाए। इस कानून के चलते विदेश दौरा करने वाले विदेशी कम्युनिस्टों के साथ-साथ अमेरिकी नागरिकों को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ा; इस बीच दूसरी सरकारी एजेंसियों ने भी इस तरह के कदमों को बढ़ावा दिया। एक तरह से अमेरिकी अधिकारियों में कम्युनिस्ट विरोधी होने की होड़ सी मची हुई थी।
1950-60 के दशक में नोबेल पुरस्कार विजेता लिनुस पॉलिंग जैसे कुछ वैज्ञानिकों ने गैर-राजनीतिक होने का ढोंग छोड़ दिया। विज्ञान से जुड़े विवादों को लेकर अपनी पेशेवर साख का उपयोग करके खुद को विश्वसनीय बनाया। परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय अभियान चलाया। उनकी मुहिम का ही नतीजा था कि वैज्ञानिकों के आधिकारिक तौर पर स्वतंत्र संगठनों, जैसे निरस्त्रीकरण समूह पगवॉश को 1963 की लिमिटेड टेस्ट बैन ट्रीटी पर बातचीत करने के लिए पर्दे के पीछे के कूटनीतिक प्रयासों को बढ़ावा दिया। जो अमेरिका और सोवियत संघ दोनों में अधिकारियों को उनकी तकनीकी विशेषज्ञता “राजनयिकों और खुफिया जानकारी के लिए एक विश्वसनीय बैकचैनल” की अनुमति देती है।
फिर भी वोल्फ का मानना था कि शीतयुद्ध की इन सभी कारगुजारियों के बावजूद वैज्ञानिक तटस्थता अमेरिकी सांस्कृतिक कूटनीति का एक महत्वपूर्ण मूल्य बनी रही। भले ही वह तटस्थता कभी-कभी हकीकत से ज्यादा ‘रुहानी’ थी।
1967 के अंत तक आर्थिक रूप से समर्थन करने और कभी-कभी कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम जैसे संगठनों को प्रभावित करने में सीआईए की भूमिका सार्वजनिक रूप से उजागर हो चुकी थी। लेकिन उसने यूएसएसआर में वैज्ञानिक कूटनीति और राजनीतिक गतिविधियां जारी रखीं। सीआईए ने सीआईए सोवियत संघ में भौतिक विज्ञानी आंद्रेई सखारोव जैसे हाई-प्रोफाइल राजनीतिक असंतुष्टों को बढ़ावा देता रहा।
वोल्फ बताते हैं-यह भी एक फैक्ट है कि सोवियत के कई असंतुष्ट वैज्ञानिकों ने कई पश्चिमी वैज्ञानिकों की राजनीतिक सक्रियता को प्रोत्साहित किया। वोल्फ कहते हैं, ‘1970 के दशक में आजादी, वैज्ञानिक आजादी को लेकर अमेरिका वैज्ञानिकों का सोवियत संघ के वैज्ञानिकों के साथ सामना हुआ।’ इन हालात ने जिमी कार्टर के प्रशासन में मानवाधिकारों पर नए सिरे से आधिकारिक जोर देने के साथ, वैज्ञानिकों के राजनीतिक प्रयासों को और अधिक प्रभावी बना दिया।
इन सब घटनाक्रमों के चलते इस समय तक, एक सार्वभौमिक, वस्तुनिष्ठ विज्ञान का पश्चिमी आदर्श आइडियोलॉजी पर आधारित सोवियत के विज्ञान पर बढ़त हासिल कर चुका था। 1980 के दशक तक पश्चिमी विज्ञान का दुनिया में डंका बजने लगा था।
वोल्फ मानते हैं कि सखारोव की नाराजगी को भुनाने में अमेरिकी रणनीति कामयाब रही। यह रणनीति मानवाधिकार आइकन और वैज्ञानिक स्वतंत्रता के तौर पर उभरकर सामने आई। वैचारिकी की जमीन पर अमेरिका ने शीत युद्ध में सोवियत के खिलाफ चालें चलीं। इस छोटे लेकिन महत्वपूर्ण तौर-तरीकों से विज्ञान से जुड़ी सांस्कृतिक कूटनीति ने सोवियत संघ के पतन का कारण बना।
वोल्फ लिखती हैं वैज्ञानिक अभी भी विश्वास कर सकते हैं कि उन्हें तटस्थ और अराजनीतिक रहना चाहिए, शाश्वत सत्य और प्रयोगात्मक डेटा के कठिन तथ्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। चाहे विज्ञान को किसी विदेशी प्रतिद्वंद्वी की विचारधारा से चुनौती मिल रही हो, जैसा कि शीत युद्ध में हुआ। डोनाल्ड ट्रंप के समय हुआ। विज्ञान और शीत युद्ध के एक इतिहासकार के रूप में ट्रोफिम लिसेंको की तरह ट्रंप प्रशासन का विज्ञान को लेकर रवैया नजर आया।
वोल्फ लिखते हैं, अंततः अमेरिका का साम्यवाद को मिटाने के अन्य प्रयासों के विपरीत विज्ञान की कूटनीति ने काम किया। शायद विज्ञान के अराजनीतिक होने के ढोंग पर वैज्ञानिकों द्वारा राजनीति को गले लगाने से ही जीत पाई जा सकती है। हो सकता है कि मनुष्य जो कुछ भी करता है वह राजनीतिक नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि विज्ञान एक ऐसी मानवीय गतिविधि है जो राजनीतिक सरोकारों से पूरी तरह अछूते रहने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
परिचय
मार्क वोल्वर्टन विज्ञान लेखिका और नाटककार हैं, जिनके लेख अन्डार्क, वायर्ड, साइंटिफिक अमेरिकन, पॉपुलर साइंस, एयर एंड स्पेस स्मिथसोनियन और अमेरिकन हेरिटेज समेत अन्य प्रकाशनों में छपे हैं। उनकी नवीनतम पुस्तक “बर्निंग द स्काई: ऑपरेशन एर्गस एंड द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ द कोल्ड वॉर न्यूक्लियर टेस्ट्स इन आउटर स्पेस” चर्चा में हैं।
सोर्सः https://undark.org/2019/03/01/science-as-a-cold-war-propaganda-tool/
अनुवाद-वरुण शैलेश