मीडिया के संदर्भ में परिस्थितियां बिल्कुल उलट गई है। 1980 के दशक में मीडिया संस्थान को खोजी पत्रकारों की जरुरत थी और अब संवाददाताओं को महज ऐसा मीडिया संस्थान चाहिए जो कि लोकतंत्र की संवैधानिक संस्थाओं की सामने दर्ज तथ्यों को प्रकाशित कर दें या उसकी एक तस्वीर बनाकर लोगों को दिखा दें।इसी संघर्ष से एनडीटीवी चैनल का संवाददाता श्रीनिवास जैन भी जूझता रहा और आखिरकार उसे संस्थान से बाहर खड़े होकर ये कहना पड़ा कि एनडीटीवी ने भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी के बारे में उस सूचना को प्रसारित करने से मना कर दिया जो कि जय शाह द्वारा कंपनी के मामलों के रजिस्ट्रार के सामने प्रस्तुत किया था। उस लेखा जोखा में अमित शाह के बेटे ने खुद ही कहा हैं कि उसके पापा के सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष बनने के बाद से उसकी कंपनी में लेन देन 16 हजार गुना बढ़ गया।
द टाइम्स ऑफ इंडिया ने जब जय शाह की कंपनी से जुड़ी सूचना को अपने बेवसाईट से उतार दिया तो यह कोई अनहोनी बात नहीं थी। क्योंकि द टाइम्स ऑफ इंडिया का रिकॉर्ड कहता है कि जब सत्ता में अपनी ताकत रखने वाले किसी नेता के बारे में संवाददाता द्वारा दी गई सूचना से वह अपने को अलग कर लेता है।
वह इसे संवाददाता द्वारा की गई गलती को सुधारने का फैसला कहता है।
जैसे कोई राजनीतिक पार्टी अपने किसी कद्दावर नेता के भी उस तरह के बयान से अपने को अलग करने का ऐलान कर देती है जिससे उसे नुकसान होने की आशंका होने लगती है। लेकिन एक मीडिया कंपनी को एक राजनेता से जुड़ी सच्ची सूचना से अपने को अलग करने का क्या नुकसान हो सकता है ? टे तो टाइम्स वाले जानें।
एनटीडीवी ने अपने चमकदार छवि बनाई है और उसकी इस कोशिश में कभी कभी धक्का लग जाता है जब अमित शाह जैसे पॉवरफुल राजनेता को नुकसान पहुंचाने वाली सूचना लेकर उसके संवाददाता पहुंच जाते है। पी चिंदबरम का भी इंटरव्यू एनडीटीवी ने प्रसारित करने से मना कर दिया था।तब और अब में फर्क यह था कि उस वक्त बरखा दत्त ने पी चिदंबरम का इंटरव्यू नहीं दिखाने के फैसले की जानकारी सार्वजनिक की थी ।
स्टोरी रुकनी चाहिए। चाहें जैसे भी हो,यह राजसत्ता की नीति का हिस्सा है। द वायर नाम की बेवसाईट ने जय शाह की कंपनी के बारे में संवाददाता रोहिणी सिंह की सूचना को प्रसारित-प्रकाशित कर दिया तो केन्द्र सरकार के मंत्री ने द वायर के खिलाफ मानहानि का मुकदमा करने की धमकी दे डाली।
अभी का वक्त पत्रकारों का वक्त नहीं है। आपातकाल के बाद आंदोलनों की वजह से खोजी पत्रकारिता सामने आई थी। खोजी पत्रकारिता में पत्रकारों की अहमियत थी।
यह संवाददाता को एक पत्रकार के रुप में प्रतिष्ठित करने का भी काल था।
किसी मामले के विविध आयामों के तह तक जाने का दबाव पत्रकार महसूस करते थे। मीडिया संस्थानों पर यह दवाब होता था कि वह खोजी पत्रकारिता के लिए जगह बनाएं। मीडिया संस्थानों को तब खोजी पत्रकारों की जरुरत होती थी। लेकिन वक्त बदल गया है।
पत्रकार महज संवाददाता की भूमिका में खुद को बनाए रखने की जद्दोजेहद कर रहा है।
उसके हाथ जो सूचनाएं आती है उसे महज प्रसारित व प्रकाशित करने के लिए किसी एक मीडिया संस्थान की तलाश में उसे भटकना पड़ता है। इस अभाव ने कई नये संस्थानों को लोगों की नजरों में हीरो बना दिया है।उन संस्थानों को कोई खोजी पत्रकारिता करने की जरुरत ही नहीं है। उन्हें बस उस सच के लिए अपना हाथ बढ़ाना है जिसे कोई कारोबारी मीडिया संस्थान छूना नहीं चाहता है।
द वायर के लिए संवाददाता रोहिणी सिंह ने कोई खोजी पत्रकारिता नहीं की है। कंपनी के रजिस्ट्रार के समक्ष कारोबार करने वाली किसी भी कंपनी को कानूनन अपना वार्षिक लेखा जोखा पेश करना होता है। वह गोपनीय भी नहीं होता है। सार्वजनिक होता है। रोहिणी सिंह ने केवल उस सार्वजनिक लेखा जोखा को व्यापक स्तर पर प्रसारित और प्रकाशित करने के लिए द वायर से कहा और द वायर ने उसके लिए अपना मंच मुहैया करा दिया।
इस वक्त मंच तक पहुंचना व मंच मुहैया कराने का साहस ही पत्रकारिता है।
नई आर्थिक व्यवस्था के पनपने की यह शर्त रही हैं कि तथ्यों को व्यापक स्तर पर प्रसारित व प्रकाशित करने से रोका जाए।नई आर्थिक नीतियां लोकतंत्र और पारदर्शिता के आवरण के साथ अपनी स्वीकृति बनाने में तो कामयाब हुई लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उसकी विचारधारा लोकतांत्रिक और पारदर्शिता वाली है। इन नीतियों के नेतृत्वकर्ताओं ने अपनी आर्थिक ताकत के बूते यह रास्ता निकाला कि वह लोकतंत्र और पारदर्शिता को अपने तरीके से हैंडल करेंगे।
यह हम अनुभव करते हैं कि मीडिया संस्थानों ने खोजी पत्रकारिता को अपने स्तर से समाप्त कर दिया।यकीन के साथ कहा जा सकता है कि मीडिया संस्थानों का जो चरित्र है वह अपने स्तर पर खोजी सामग्री का पक्षधर कतई नहीं हो सकता । वह तो आपातकाल के विरोध के बहाने जो लोकतांत्रिक चेतना का विस्तार हुआ उस चेतना के लिए खोजी पत्रकारिता एक जरुरत थी।
खोजी पत्रकारिता की खोज को कारोबारी मीडिया संस्थानों ने अपनी जरुरत के लिए इस्तेमाल किया।
भारत में नई आर्थिक नीति के लागू होने के बाद आर्थिक मामलों को लेकर सबसे ज्यादा खोजी पत्रकारिता की जरुरत थी। सत्ता ने मीडिया को तो साध लिया लेकिन लोकतंत्र के लिए बनी संस्थाएं अपनी न्यूनतम भूमिका में सक्रिय रही। नतीजे के तौर पर उन संस्थानों ने आर्थिक मामलों का केवल परंपरागत ढंग से अध्ययन किया तो उनके लिए भी मीडिया में जगह मुश्किल हो गई। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में जितने भी घोटालों की चर्चा हम सुनते हैं उनमें किसी में भी पत्रकारिता की खोजी दृष्टि की भूमिका नहीं है। वह लोकतंत्र के लिए स्थापित संस्थानों के वार्षिक लेखा जोखा को प्रस्तुत करने की संवैधानिक प्रक्रिया का हिस्सा भर रहा है। संविधान के प्रावधान के तहत होने वाली लेखा परीक्षण की उन रिपोर्टों को महीनों तक कारोबारी मीडिया में जगह नहीं मिली जो सत्ता की मेहरबानी से किसी कंपनी के रातोरात धनवान होने की सुगबुगाहट को पुष्ट करती थी।
नई आर्थिक नीति के जमाने में संवाददाता ये भर चाहता रहा है कि लेखा परीक्षक की रिपोर्टों का सार हो या चुनाव आयोग के समक्ष उम्मीदवारों द्वारा अपनी आर्थिक संपन्नता के बारे में दी गई जानकारी हो, उसका प्रसारण व प्रकाशन सुनिश्चित हो। लेकिन कारोबारी मीडिया लोकतंत्र की हर उस प्रक्रिया को स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखता है जो कि सत्ता के प्रभाव में किसी व्यक्ति व किसी कंपनी के रातों रात आर्थिक साम्राज्य में बदलने की तस्वीर को पेश करती हो ।
मीडिया कंपनियां उसे लोकतंत्र की भूल के रुप में लेती है ।
इसीलिए यह अनुभव करते हैं कि
वह सच को दिखाने या छापने के अलावा खुद को हर उस काम में अपने को लगा दिया है जो कि उसका काम नहीं है।
वह कभी अपने संवाददाताओं को सफाई अभियान में लगा देता है तो कभी वैसे पात्रो की खोज में लग जाता है जिसे इनाम देने के लिए कार्यक्रम आयोजित किया जा सके।
मीडिया की खोज करते संवाददाता
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