प्रो. हरबंस मुखिया
‘इतिहास’ – इस शब्द का सभ्यता के विकास के विभिन्न चरणों में क्या अर्थ रहा है, इतिहास का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किस तरह उपयोग और दुरुपयोग किया जाता रहा है और किस तरह उसे समाज की सामूहिक स्मृति से मिटाने के प्रयास हुए।
इतिहास लेखन के विभिन्न मूलभूत तत्वः
विभिन्न स्त्रोतः इतिहास से हमारा परिचय केवल स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के माध्यम से नहीं होता। जिन लोगों ने इतिहास को एक विषय के रूप में नहीं पढ़ा है, वे भी उसके बारे में जानते हैं, कविता, सिनेमा, थियेटर, मिथकों और लोककथाओं के जरिये। इतिहास कई अलग-अलग तरीकों से समाज तक पहुंचता है। कई बार, इतिहास के किसी विशेष संस्करण का प्रचार-प्रसार संगठित और सुनियोजित तरीके से किया जाता है, जैसा कि आरएसएस जैसे संगठन करते आ रहे हैं।
इतिहास की सीखः इतिहास हमें क्या सिखाता है, इस प्रश्न के उत्तर में अक्सर कहा जाता है कि इतिहास हमें सिखाता है कि हमें अपनी गलतियों को दोहराना नहीं चाहिए। परन्तु असल में ऐसा नहीं है। वरन् क्या दुनिया में युद्ध जैसी गलतियां और मूर्खताएं बार-बार होतीं?
वैधता हासिल करने का उपकरणः अक्सर, सत्ताधारी इतिहास का उपयोग अपने निर्णयों, नीतियों और कार्यों को वैध और औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए करते हैं और इसके लिए वे इतिहास का अपना आख्यान प्रस्तुत करते हैं। परन्तु यह एक दोधारी तलवार है, क्योंकि इतिहास की वैकल्पिक व्याख्या, सत्ता के विरोधियों के विचारों का समर्थन करने वाली भी हो सकती है।
इतिहास में वैविध्यताः इतिहास बहुविध होता है। उसका निर्माण जिन आख्यानों और कारकों से होता है, वे एक-दूसरे से जुड़े भी हो सकते हैं और परस्पर विरोधी भी।
इतिहास लेखन की कला का विकास
अतीत का विभाजनः जो समय गुजर गया, उसे विभिन्न कालखंडों में विभाजित करने की परंपरा यूरोप सहित दुनिया के अनेक भागों में है। जैसे– अतीत को प्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिक काल में बांटना।
सत्य की तलाशः पुरातन काल से ही इतिहास के कई आख्यान रहे हैं। यूनानी इतिहासविद हिरोडोटस (6वीं शताब्दी ईसापूर्व) की पुस्तक का नाम ‘हिस्ट्रीस’ था, ‘हिस्ट्री’ नहीं। उनके लिए इतिहास, किस्से-कहानियों और परम्पराओं का वर्णन था ना कि घटनाओं का। उस समय तक तथ्यों की पुष्टि करने की अवधारणा विकसित नहीं हुई थी। परन्तु हिरोडोटस फिर भी सत्य और असत्य के बीच के अंतर से वाकिफ थे और सत्य की तलाश में थे। उनके बाद भी ‘सत्य’ की अवधारणा बनी रही परन्तु प्राचीन आख्यानों का सत्य, वस्तुनिष्ठ और निरपेक्ष न होकर व्यक्ति-निष्ठ था।
भाषा–शास्त्र और इतिहासः पुनर्जागरण काल में भाषाशास्त्र का जन्म हुआ – शब्दों के अर्थ के अध्ययन का विज्ञान। ज्ञान की इस शाखा के अध्ययन से यह सामने आया कि शब्दों के अर्थ परिस्थितियों और समय के अनुसार बदलते रहते हैं। जैसे– हाल में महाराष्ट्र में सरकार के गठन के समय ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का अर्थ उन पार्टियों ने बदल दिया, जो सत्ता पर काबिज होने के लिए आतुर थीं।
प्रयोगसिद्ध या अनुभवजन्य विश्लेषणः 16वीं सदी में फ्रांकोइस बौदौइन और जीन बोडिन नामक फ्रांसिसी इतिहासकारों ने इतिहास के स्त्रोतों को दो भागों में विभाजित किया- प्राथमिक और द्वितीयक। प्राथमिक स्त्रोत वे थे जो उस काल, जिसके बारे में वे लिख रहे थे, में जीवित थे। द्वितीयक स्त्रोत वे थे जिन्होंने किसी काल के बारे में उसके गुजर जाने के बाद लिखा। यह विभेद इतिहास लेखन की विकास यात्रा में मील का पत्थर था। इस सिलसिले में वक्ता ने अयोध्या मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का हवाला दिया। बाबरी मस्जिद का निर्माण, बाबर के सेनापति मीर बकी ने 1528 में किया था। उसने यह कहीं नहीं कहा कि उस स्थल पर राम मंदिर तो छोड़िए, कोई भी मंदिर था। बाबर, हुमायूं और अकबर से लेकर औरंगजेब तक किसी बादशाह या उनके इतिहासविदों ने कहीं यह नहीं लिखा कि अयोध्या में किसी मंदिर को ढहा कर उसकी जगह मस्जिद बनाई गई थी। यह इस तथ्य के बावजूद कि इनमें से कई बादशाहों की जीवनियां लिखीं गईं और इनके शासनकाल में हुई घटनाओं का विस्तार से विवरण करने वाली कई पुस्तकें उपलब्ध हैं।
सत्रहवीं शताब्दी के अंत और अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में, इतिहास लेखन में एक नया परिवर्तन आया – और वह था जो कहा जा रहा है, उसे प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए फुटनोट (पाद टिप्पणी) और सन्दर्भ ग्रंथों की सूची देने का चलन। इसके बाद आए चर्चों और परिवारों के अभिलेख और राज्य अभिलेखागार। इन सबने इतिहास लेखन को एक ऐसे आख्यान, जिसकी प्रमाणिकता साबित करना संभव नहीं था, से इस प्रकृति के विवरण में बदल दिया जिसकी पुष्टि विभिन्न विश्वसनीय सन्दर्भ ग्रंथों और अन्य स्त्रोतों से की जा सकती थी।
इस्लामिक अवधारणा
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि विधिवत इतिहास लेखन की शुरुआत, मुहम्मद और खलीफाओं की जीवनियों और बाद में साम्राज्यों और राजवंशों के बारे में लेखन से हुई। इसका उद्देश्य भविष्य के लिए तथ्यों का अभिलेख रखना था। इस्लाम ने दुनिया को हिजरी संवत दिया, जो पूरी इस्लामिक दुनिया में लागू था और विश्व इतिहास की अवधारणा भी, यद्यपि यह विश्व केवल इस्लामिक विश्व था। घटनाओं का कालक्रमानुसार विवरण किया गया और बारीकी से उनके घटने की तारीख और साल लिखे गए।
प्राचीन भारत में इतिहास लेखन
मार्क्स, हेगेल और कई यूरोपीय विद्वानों का मत था कि प्राचीन भारतीयों को समय की परिकल्पना की समझ नहीं थी। वे केवल राजवंशों का इतिहास लिखते थे, समाज और उसके विकास का नहीं। परन्तु वक्ता ने यह साफ किया कि प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन केवल राजवंशों पर केन्द्रित नहीं था वरन् उसके सरोकार कहीं अधिक व्यापक थे। यूरोपीय और औपनिवेशिक विचारकों का यह भी ख्याल है कि प्राचीन भारतीय मानते थे कि समय का चरित्र चक्रीय है ना कि रैखिक और इसलिए वे विकास की संकल्पना से अनभिज्ञ थे। वक्ता ने कहा कि यह मान्यता गलत है क्योंकि पूरे विश्व में ही समय की रैखिक अवधारणा, नवजागरण काल के बाद आयी।
20वीं सदी में इतिहास लेखन
आज, प्रगति और विकास की अवधारणा को ही चुनौती दी जा रही है, विशेषकर उसकी यूरोपीय और औपनिवेशिक समझ को। जर्मन इतिहासकार लेओपोल्ड फॉन रांक द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों को भी अब उतनी तरजीह नहीं दी जाती क्योंकि वे आख्यानों की बहुलता की आवश्यकता या समाज की क्रमागत उन्नति के साथ इतिहास को देखने के परिप्रेक्ष्य में आए परिवर्तन पर कोई ध्यान नहीं देते।
आधुनिकताः यह विचार भी अब पुराना हो गया है कि आधुनिकता हमारी दुनिया को यूरोप की भेंट है। आज जोर इस बात पर है कि जिस आधुनिक दुनिया में हम रह रहे हैं, वह अतीत की सभी सभ्यताओं के सम्मिश्रण से उभरी है और वह हमें केवल यूरोप से विरासत में नहीं मिली है। चाहे वह सिक्कों का प्रचलन हो, अंतर्देशीय व्यापार की बात हो, पहिये का इस्तेमाल हो या दर्शनशास्त्र – सभी के विकास पर अतीत की विभिन्न सभ्यताओं का समग्र प्रभाव है। वक्ता ने समोसे जैसी साधारण वस्तु का उदाहरण देते हुए बताया कि उसका आकार और उसे तेल में तल कर पकाने का तरीका हमने मध्य एशिया से सीखा परन्तु उसमें भरी जाने वाली सामग्री जैसे आलू, मिर्ची और टमाटर- लातिनी अमरीका सहित दुनिया के अलग-अलग भागों से हम तक पहुंचीं। इसलिए किसी भी समाज के विकास में विभिन्न सभ्यताओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। इतिहास के बहुवादी संस्करण आज अत्यंत प्रासंगिक बन पड़े हैं।
वक्ता ने कहा कि मानव सभ्यता के विकास में वर्ग संघर्ष को सबसे महत्वपूर्ण मानने की मार्क्सवादी अवधारणा भी अब स्वीकार्य नहीं है।
राजनीतिक हथियार के रूप में इतिहासः इतिहास का उपयोग राज्य और उसके विरोधियों- दोनों द्वारा अपने-अपने हितों को साधने के लिए किया जाता रहा है। इतिहास को प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक कालों में बांटने में यह अन्तर्निहित है कि आधुनिक काल, तार्किकता पर आधारित है और अन्य दो कालों में या तो तार्किकता कम थी अथवा वे अतार्किक थे- वे अंधकार के युग थे। यह एक तरह से यूरोपीय देशों के औपनिवेशवाद को औचित्यपूर्ण ठहराने का प्रयास था। जेम्स मिल ने भारत के इतिहास को हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश कालों में विभाजित किया और यह साबित करने का प्रयास किया कि ब्रिटिश राज का लक्ष्य भारत को ‘सभ्य’ बनाना था। फ्रांस की स्कूली पाठ्यपुस्तकों में यह कभी नहीं कहा गया कि अल्जीरिया, फ्रांस का उपनिवेश है बल्कि विद्यार्थियों को यह बताया गया कि एक मित्र देश के तौर पर अल्जीरिया का विकास किया जा रहा है। पाकिस्तानी पाठ्यपुस्तकें कहतीं हैं कि हिन्दुओं का अन्याय, मुसलमानों की वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार है। यही बात मंचूरिया के बारे में जापान में जो कहा जाता है, उसके बारे में सच है। कुल मिलाकर, सरकारें अपने निर्णयों, नीतियों और कार्यवाहियों को औचित्यपूर्ण और नैतिक सिद्ध करने के लिए इतिहास के अपने आख्यान प्रस्तुत करती रही हैं।
इसी तरह, इतिहास का प्रयोग, सत्ताधारियों को चुनौती देने के लिए भी किया जाता रहा है। भारत का स्वाधीनता संग्राम, देश के इतिहास के नए संस्करणों पर आधारित था जिनमें इस धारणा को चुनौती दी गयी थी कि ब्रिटिश राज ने भारत में सुशासन स्थापित किया और देश की प्रगति के लिए काम किया। इसी तरह, देश के किसी क्षेत्र विशेष के लोग यह कह सकते हैं कि देश की वर्चस्वशाली ताकतों ने उनकी प्रगति को बाधित किया और यही बात निम्न जातियां/वर्ग भी उच्च जातियों/वर्गों के बारे में कह सकते हैं।
अतः इतिहास, वर्चस्ववाद बनाम वर्चस्ववाद का विरोध और दमन बनाम पहचान के अभिकथन का माध्यम भी है।
इतिहास का मिथ्याकरणः इस समय जो एक प्रवृत्ति दिख रही है, वह है इतिहास को तोड़-मरोड़कर, उसका मिथ्या संस्करण लोगों के सामने प्रस्तुत करना। यह विशेषकर भाजपा द्वारा मुगल बादशाहों के इतिहास को लेकर किया जा रहा है। कुछ समय पहले, भाजपा के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता ने अकबर की तुलना हिटलर से की थी। जाहिर है कि वे न तो अकबर के बारे में कुछ जानते हैं और ना ही हिटलर के बारे में। इसी तरह यह झूठ भी फैलाया जा रहा है कि मुगलों ने तलवार के दम पर लाखों हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। यह न तो तत्कालीन दस्तावेजों से प्रमाणित होता है और ना ही बाद के जनगणना आकंड़ों से। सन 1941 की जनगणना के अनुसार, अविभाजित भारत में मुस्लिम आबादी का प्रतिशत 25 से थोड़ा कम था। यह दिलचस्प है कि उस समय मुसलमानों की सबसे घनी आबादी भारतीय उपमहाद्वीप के चारों छोरों पर थी – उत्तर में कश्मीर, दक्षिण में केरल का मालाबार क्षेत्र, पश्चिम में वह क्षेत्र, जो अब पाकिस्तान है और पूर्व में वह जो अब बांग्लादेश है। ये सभी क्षेत्र मुगल साम्राज्य के सीमावर्ती इलाके थे। इसके विपरीत, इन चारों छोरों के बीच का क्षेत्र, जहां मुगलों को चुनौती देने वाली कोई ताकत नहीं थी, जहां मुगलों की सबसे मजबूत पकड़ थी, उस क्षेत्र में मुसलमानों का प्रतिशत ज्यादा से ज्यादा 15 प्रतिशत था। इससे यह आरोप बेबुनियाद और बकवास सिद्ध होता है कि मुगलों ने जोर-जबरदस्ती से हिन्दुओं को मुसलमान बनाया। यह मानना तो मूर्खता होगी कि मुगल बादशाहों ने उन इलाकों में धर्म परिवर्तन करवाया, जहां उनकी सत्ता कमजोर थी, उन इलाकों में नहीं जहां वे मजबूत थे जैसे पूर्वी पंजाब, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार आदि।
बिशप हेबर के अनुसार 1830 के दशक में मुसलमान भारत की आबादी का छठवां हिस्सा थे और 1940 के आसपास, वे देश की आबादी का एक-चौथाई बन गए थे- अर्थात, इस अवधि में उनकी आबादी में 50 फीसदी की वृद्धि हुई। और यह वृद्धि ब्रिटिश काल में हुई।
लोक इतिहास, लोक साहित्य और पौराणिक कथाएँ, सामान्य लोगों की इतिहास की समझ को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। चूँकि अकादमिक इतिहास की पहुंच अधिकतम देश की पांच प्रतिशत आबादी तक होती है इसलिए यह आशंका हमेशा बनी रहती है कि तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किये गए आख्यान, वास्तविक इतिहास की जगह ले लें। हमें इस खतरे के प्रति आगाह रहना होगा।
(अंग्रेजी से हिंदी में अऩुवाद- अमरीश हरदेनिया, यह व्याख्यान इतिहासविद प्रो. हरबंस मुखिया ने डॉ. डॉ. असगर अली इंजीनियर व्याख्यानमाला की 14वीं कड़ी में दिया)
(जन मीडिया के फरवरी 2020, अंक-95 में प्रकाशित)