जसपाल सिंह सिधु
केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने 11 दिसंबर 2019 और 20 दिसंबर 2019 को टेलीविजन चैनलों के लिए दिशा-निर्देश जारी किये, जिसमें चैनलों से प्रसारित की जाने वाली अपनी ‘सामग्री’ को लेकर अधिक सर्तकता बरतने को कहा गया था। दिशा-निर्देश में चैनलों से यह अपेक्षा की गई थी कि उनकी सामग्री “हिंसा भड़काने वाली न हो, राष्ट्र की एकता को खंडित करने वाली न हो और किसी व्यक्ति, सार्वजनिक समूह और लोगों के नैतिक जीवन को बदनाम एवं लांछित न करती हो।” ऊपरी तौर पर ये दिशा-निर्देश जरूरी और मासूम लगते हैं, जिसका उद्देश्य समाज के चरित्र और उसकी संयमता की रक्षा करना है। लेकिन इन ‘पवित्र’ शब्दों के मायने कहीं गहरे हैं और इसका मकसद चैनलों को चेतावनी देना है कि वे सत्ता की राजनीति के अनुकूल चलने में कोताही न बरते।
सबसे पहले इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि आखिर इस किस्म के आधिकारिक दिशा-निर्देश क्यो जारी किए जाते हैं? किन मौकों पर इस तरह के दिशा-निर्देश जारी किए जाने चाहिए? और इसके मायने क्या है? तथ्य यह है कि सरकार के तौर-तरीकों के मद्देनजर भारतीय मुख्यधारा का मीडिया अब ‘पहरेदार’ की भूमिका निभाने का दावा नहीं कर सकता। असल में, 2014 में मोदी सरकार के बाद से मीडिया ने सत्ता से सवाल करना छोड़ दिया है। हिन्दुत्व में रंगे अति-राष्ट्रवाद के शासन की प्रेरक शक्ति बनने की स्थिति में मुख्यधारा के मीडिया का एक बड़ा हिस्सा खुद को सरकारी प्रचार का औजार बनाते हुए सरकार का ‘समर्थक’ बन चुका है। यही वजह है कि परंपरा के उलट प्रधान मंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी ने लगभग पिछले पांच साल के दौरान एक भी पत्रकार सम्मेलन को संबोधित करने की जहमत नहीं उठायी।3 हालांकि, प्रधानमंत्री ने चुनिन्दा मीडिया संस्थानों के जरिए लोगों के बीच अपनी बात पहुंचायी। इस किस्म की प्रायोजित ब्रीफिंग हमेशा से प्रचार की नीयत से आधिकारिक तौर पर की जाने वाली कवायद रही है।
दृश्य-श्रव्य या वीडियो चलाने वाले टीवी चैनलों का लोगों के सोचने-समझने के तौर-तरीकों पर तत्काल प्रभाव पड़ता है। अखबारों और पत्रिकाओं के मुकाबले चैनलों पर अधिकारियों की पैनी नजर रहती है। इसी वजह से हालिया दिशा-निर्देश अखबारों के बजाय निजी टीवी चैनलों को लक्षित करते हुए जारी किए गए हैं और उनसे केबल टीवी नेटवर्क (विनियमन) अधिनियम, 1995 के नियमों का पालन करने को कहा गया है। यहां तक कि देश के शहरी और ग्रामीण इलाकों में टीवी नेटवर्क की जबरदस्त पहुंच बन चुकी है और टीवी सेट झोपड़ियों में भी अपनी जगह बना चुके हैं। चीन के बाद भारत में टीवी चैनलों का बाजार 20 करोड़ परिवारों तक फैल चुका है। फिक्की की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार टीवी चैनलों का बाजार 7.5 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है और पूरा व्यवसाय 800 बिलियन रुपये का हो चुका है। बड़े व्यापारिक घरानों ने टीवी उद्योग में बड़े पैमाने पर शेयर खरीदे हैं। कुछ टेलीविजन चैनलों को बड़े शेयर वाले व्यापारिक घरानों द्वारा चलाया जा रहा है।
स्वामित्व के ढांचे के मद्देनजर टेलीविजन उद्योग के लिए समाचारों और विचारों को प्रस्तुत करते समय आधिकारिक नजरिये का ध्यान रखना जरूरी बन गया है। कोई भी व्यावसायिक घराना सरकार की नाराजगी मोल लेने का जोखिम नहीं उठा सकता है। अखबारों की तरह ही व्यावसायिक घरानों द्वारा टीवी चैनल सत्ता के साथ अपने संबंध बनाने की नीयत से चलाये जा रहे हैं। यही वजह है कि ज्यादातर टीवी चैनलों का रवैया मोदी सरकार के हितों के अनुकूल है। इसके अलावा, अखबारों और टीवी चैनलों का ‘राजस्व ढांचा’ कुछ इस किस्म का होता है कि वे सरकारी एवं निजी विज्ञापनों के नियमित प्रवाह की बदौलत ही बच और बढ़ सकते हैं। अगर कोई चैनल सरकारी विज्ञापनों को पाने में नाकाम रहता है तो वह निजी विज्ञापनों की उम्मीद नहीं कर सकता क्योंकि आमतौर पर सरकारी और निजी विज्ञापन साथ-साथ चलते हैं। इसलिए, टीवी चैनलों को आधिकारिक नजरिये का ख्याल रखना ही पड़ता है।
यहां तक कि टीवी पर सीधे प्रसारित की जाने वाली बहसों में ‘विशेषज्ञों’ का चयन कुछ इस तरह किया जाता है कि सत्ताधारी दल के प्रवक्ता का पक्ष कहीं अधिक मजबूती से दिखे। एंकरों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे एक हद के बाद सरकार की आलोचना करने का साहस करने वाले वक्ताओं को नियंत्रित करे। चैनलों के प्रबंधन से वैसे कार्यक्रमों को प्रसारित न करने या ऐसे वक्ताओं को अनुमति न देने को कहा जाता है जो सत्ता की आलोचना करते है या सत्ता से सीधे सवाल करते हैं। मोदी सरकार के दबाव में कई टीवी कार्यक्रम के प्रसारण को रोक दिया गया है4 और चैनल से कई टीवी आलोचकों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है।
इसके बावजूद मोदी सरकार इस बात का कोई मौका नहीं देना चाहती थी कि कोई भी चैनल नागरिकता संशोधन अधिनियम के पारित होने के बाद देश भर में फैले व्यापक प्रदर्शनों की वास्तविक फुटेज को प्रसारित करे। हालिया दिशा-निर्देश सरकार की इसी चिंता का नतीजा हैं। इन दिशा-निर्देशों में वर्णित ‘राष्ट्र की एकता’, ‘हिंसा भड़काने वाली’ और ‘सार्वजनिक नैतिकता को बदनाम या लांछित करना’ जैसी शब्दावलियां वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में हिन्दुत्व का पुट लिए हुए हैं और इनका मकसद विरोध-प्रदर्शन करने वालों को ‘उपद्रवी’ या ‘देशद्रोही’ करार देना है। कुलमिलाकर इस किस्म की आधिकारिक फटकार टीवी प्रोडूसरों, रिपोर्टरों और एंकरों को अपने रंग में रंगने के लिए काफी थी।
इससे पहले, नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) के खिलाफ असम में उभरे विरोध को राष्ट्रीय टीवी चैनलों ने तकरीबन पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया था। बाद में, अधिकांश टीवी चैनलों ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में पुलिस की ज्यादतियों के बारे में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया। पुलिस ने जानबूझकर इन विश्वविद्यालयों में छात्रों के प्रदर्शनों को अल्पसंख्यकों के कारनामों के रूप में पेश किया। इन टीवी चैनलों ने शायद ही इस बात को स्पष्ट किया कि इन विश्वविद्यालयों में अल्पसंख्यकों की तुलना में हिन्दू छात्र और शिक्षक ज्यादा हैं। इसी तरह, कुछ को छोड़कर अधिकांश टीवी चैनलों ने उत्तर प्रदेश में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शऩ करने वालों के साथ हुई पुलिस की ज्यादतियों की वास्तविक तस्वीरों से आंखें चुराने की कोशिश की।
चूंकि डिजिटल मीडिया ऑडियो, विजुअल्स और फुटेज के साथ तोड़-मरोड़ करने की सहूलियत देता है, पुलिस और अऩ्य अधिकारीगण टीवी चैनलों का इस्तेमाल अपने तरीके से कहानी को प्रस्तुत करने के लिए कर रहे हैं। पुलिस की गोलियों से घायल कई प्रदर्शनकारियों और तमाशबीनों के तथ्य को छुपाने के लिए, पुलिस टीवी चैनलों को प्रदर्शनकारियों में से किसी एक के द्वारा गोली चलाने के वीडियो को जारी कर रही है। तीन वर्ष पहले जेएनयू में छात्रों के प्रदर्शन के दौरान एक राष्ट्रीय टीवी चैनल ने तथाकथित ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के सदस्यों द्वारा ‘पाकिस्तान समर्थक नारे लगाये जाने’ का तोड़-मरोड़ कर बनाया गया एक वीडियो प्रसारित किया था। बाद में वह वीडियो फर्जी और आधारहीन पाया गया था। लेकिन इस फर्जी कवायद ने अधिकारियों को उनके मकसद में तत्काल फायदा पहुंचाया था। फर्जी खबरें इस विश्वास के साथ फैलाई जाती है कि जब तक सच सामने आयेगा, तब तक अऩ्य घटनाएं पहले की बातों को दबा चुकी होंगी और ज्यादातर लोग पहली बात को भूल चुके होंगे।
मीडिया संबंधी दिशा-निर्देश का परोक्ष अधिकारिक संदेश सत्ताधीशों की राजनीति के अनुकूल चलने का होता है। सत्ता द्वारा प्रेस के लिए ऐसे दिशा-निर्देश पंजाब, कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों जैसे संर्घषग्रस्त क्षेत्रों में अक्सर जारी किए गए हैं। दरअसल, ये दिशा-निर्देश मीडिया प्रबंधन और जमीन पर काम करने वाले मीडियाकर्मियों को सचेत करने और उन्हें लगातार याद दिलाने के लिए होते हैं। ये अधिकारिक दिशा-निर्देश पिछले दरवाजे से सेंसरशिप का इंतजाम हैं और मीडियाकर्मियों को ‘सेल्फ सेंसरशिप’ के लिए राजी करने का प्रयास हैं। जब सत्ता द्वारा मीडियाकर्मियों से लोकतंत्र और कानून के शासन का पहारेदार होने के बजाय राष्ट्रवादी होने को कहा जाये, तो ये दिशा-निर्देश प्रेस की आजादी पर गंभीर खतरा बन जाते हैं।
*लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जिन्होंने 1980 के दशक के अशांत दौर में पंजाब से रिपोर्टिंग की थी।
अंग्रेजी से अनुवाद- संजय कुमार बलौदिया
(जन मीडिया के जनवरी 2020 अंक-94 में प्रकाशित)
संदर्भ-
1. https://mib.gov.in/sites/default/files/Document%20for%20Website%20on%2012.12.2019.pdf
2. https://mib.gov.in/sites/default/files/Advisory%20dated%2020.12.19.pdf
3. https://www.news18.com/news/india/not-one-press-conference-in-tenure-of-4-5-years-why-sir-shatrughan-sinha-reminds-pm-modi-1990793.html
4. https://thewirehindi.com/53257/punya-prasun-bajpai-abp-news-masterstroke-modi-govt-media/