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बांटो और रिपोर्ट करो!

कश्मीर मामले में बीबीसी की कवरेज उतनी भी ‘निष्पक्ष’ नहीं है, जितना कि दावा है

पांच अगस्त 2019 को संसद ने संविधान के अनुच्छेद-370 को खत्म कर दिया। इसके बाद घाटी में अप्रत्याशित बंद की खबरें देने के मामले में बीबीसी ने दूसरे मीडिया संस्थानों को कहीं पीछे छोड़ दिया। राष्ट्रीय मीडिया ऐसे मौके पर आमजन की आवाज बनने में असफल रहा। इसके लिए पत्रकारों और मीडिया मालिकों में राष्ट्रवादी उत्साह जैसे तमाम कारण जिम्मेदार रहे। हालांकि, इस कमी को अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों ने भरने की कोशिश की। बीबीसी, अल जजीरा, रॉयटर्स, एसोसिएटेड प्रेस, न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे संस्थानों ने नाकेबंदी वाले इलाके से खबरें करने के अपने तरीके निकाले।

इन सब में बीबीसी का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा। 9 अगस्त 2019 को श्रीनगर में हुए प्रदर्शन से जुड़ा इसका वीडियो बहस का केंद्र बना। केंद्र सरकार के साथ-साथ हिंदुत्ववादी ताकतों की इंटरनेट पर लोगों को निशाना बनाने वाली टुकड़ी (ट्रॉल आर्मी) ने इस वीडियो को ‘मनगढंत और गलत’ बताते हुए खारिज कर दिया। राष्ट्रवादियों ने ‘फेक न्यूज’ प्रसारित करने को लेकर ब्रिटेन के पब्लिक ब्रॉडकास्टर (बीबीसी) की खूब आलोचना की। यह (वीडियो) मुख्यधारा की मीडिया में अर्णब गोस्वामी जैसे लोगों के लिए चारा बन गया, जिन्हें इस रिपोर्टिंग में भारत के खिलाफ औपनिवेशिक साजिश नजर आई। लेकिन बीबीसी अपने दावे पर डटा रहा। उसने कश्मीर में हो रही घटनाओं को गलत तरीके से पेश करने के सरकार और उसके समर्थकों के दावों को खारिज करते हुए एक बयान भी जारी किया।

बीबीसी का बयान, “बीबीसी अपनी पत्रकारिता के साथ खड़ा है। हम पूरी मजबूती से ऐसे किसी भी दावे को खारिज करते हैं कि हमने कश्मीर की घटनाओं को गलत तरीके से पेश किया है। हम बगैर किसी पक्षपात के और पूरी सटीकता के साथ वहां के हालात की खबरें दे रहे हैं। दूसरे मीडिया संस्थानों की तरह कश्मीर में इस समय हमें भी तमाम बंदिशों का सामना करना पड़ रहा है। फिर भी वहां जो कुछ भी हो रहा है, उसकी हम आगे भी खबर देते रहेंगे।” हालांकि, बीबीसी और अल-जजीरा के असंपादित वीडियो और तस्वीरों को देखने के बाद भी सरकार लगातार इस बात से इनकार करती रही कि 9 अगस्त 2019 को श्रीनगर के सौरा इलाके में बड़े पैमाने पर कोई प्रदर्शन हुआ था। लेकिन तीन दिन बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने आखिरकार माना कि वहां एक प्रदर्शन हुआ था। 13 अगस्त 2019 को गृह मंत्रालय के ट्विटर हैंडल पर उसके एक प्रवक्ता ने लिखा कि “श्रीनगर के सौरा इलाके की एक घटना को लेकर मीडिया में खबरें आई हैं। 9 अगस्त 2019 को स्थानीय मस्जिद से नमाज के बाद लौट रहे लोगों में कुछ उपद्रवी तत्व शामिल थे। उन्होंने अशांति फैलाने के मकसद से बगैर किसी उकसावे के सुरक्षाकर्मियों पर पत्थरबाज़ी की। सुरक्षाकर्मियों ने संयम दिखाया और क़ानून व्यवस्था बनाए रखने की कोशिश की। एक बार फिर स्पष्ट किया जाता है कि अनुच्छेद 370 हटाने के बाद जम्मू-कश्मीर में एक भी गोली नहीं चली है।”
लेकिन इस सराहनीय काम के बावजूद क्या हम बीबीसी पर भरोसा कर सकते हैं? कश्मीर की घटनाओं की साहसिक रिपोर्टिंग और पत्रकारिता के मूल्यों के साथ मजबूती से खड़े रहने के दावे के बावजूद यह ब्रिटिश प्रसारणकर्ता उतना ‘निष्पक्ष’ नहीं है, जितना कि दावा करता है। यह हकीकत हिंदी और उर्दू भाषाओं में कश्मीर के मामले में बीबीसी की खबरों की तुलना से सामने आ जाती है। ऐसा लगता है कि बीबीसी, भारत और पाकिस्तान के लिए दो अलग-अलग संपादकीय नीतियां अपना रहा हो। यह अंतर इतना ज्यादा है कि ये (संपादकीय नीतियां) इस समय एक-दूसरे से बिल्कुल अलग दिखाई देती हैं।

भारतीय दर्शकों को ध्यान में रखते हुए बीबीसी की हिंदी सेवा ने साल 2017 में ‘दुनिया’ नाम से आधे घंटे का टीवी कार्यक्रम शुरू किया था। इस कार्यक्रम को दिल्ली से तैयार और प्रसारित किया जाता है। इसके लिए बीबीसी ने इंडिया टीवी में समय (स्लॉट) किराए पर लिया है। इसी तरह पाकिस्तान के उर्दू दर्शकों को ध्यान में रखते हुए बीबीसी अपना लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम “सैरबीन” प्रसारित करता है। इसका वीडियो वर्जन भी प्रसारित किया जाता है। दुनिया और सैरबीन कार्यक्रमों के लिए अभी जैसी रिपोर्टिंग होती है, उसमें इतना अंतर है कि यह भारत और पाकिस्तान के चैनल होने का एहसास कराते हैं, ना कि किसी तीसरी या तटस्थ देश के चैनल का।

इस मामले में 14 अगस्त 2019 को दिल्ली में हुई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस गौरतलब है। जाने-माने अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, सामाजिक कार्यकर्ता कविता कृष्णन, मैमूना मोल्लाह और विमल भाई ने इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया था। इन्होंने केंद्र सरकार की ओर से कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म किए जाने और इसका नियंत्रण सुरक्षाबलों को दिए जाने के बाद कश्मीर का दौरा करने के बाद अपना अनुभव मीडिया के सामने रखा था। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया का असामान्य तरीके से ध्यान खींचा, क्योंकि यह उन जिम्मेदार नागरिकों की ओर से कश्मीर के हालात को बताने वाला अपनी तरह का पहला आयोजन था, जिन्होंने अपनी जान और छवि की परवाह किए बगैर पांच दिनों तक कश्मीर का दौरा करके हालात का जायजा लिया था। उनकी कही हर बात खबर बनी। उन्होंने कश्मीर के हालात पर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई थी, लेकिन प्रेस क्लब प्रशासन ने इसे दिखाने की इजाजत नहीं दी।

हिंदी के ‘दुनिया’ कार्यक्रम में सबसे ज्यादा मैमूना मोल्लाह को तवज्जो मिली, जिन्होंने बताया कि कैसे उन्हें और उनकी टीम के सदस्यों को उन अस्पतालों में जाने से रोका गया, जहां सुरक्षाबलों की कथित फायरिंग में घायल लोग भर्ती थे। उन्होंने यह भी बताया कि इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के चलते प्रेस क्लब के प्रशासन को कितना दबाव झेलना पड़ा है। मैमूना मोल्लाह ने आगे कहा कि उनसे (सामाजिक कार्यकर्ताओं) अनौपचारिक तौर पर कहा गया कि कश्मीर से लाई गई डॉक्यूमेंट्री को ना दिखाया जाए। ‘दुनिया’ कार्यक्रम में ज्यां द्रेज को दर्शकों से यह कहते हुए दिखाया कि उनकी टीम को कश्मीर में कैसी-कैसी पाबंदियों का सामना करना पड़ा। उन्होंने यह भी कहा कि (कश्मीर को लेकर) रॉयटर्स, न्यूयॉर्क टाइम्स इत्यादि की खबरें सही हैं।

लेकिन बीबीसी के हिंदी चैनल ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की नेता कविता कृष्णन को दिखाया ही नहीं। वे अपनी स्पष्ट बयानबाजी और मोदी सरकार पर मौखिक हमलों की वजह से सरकारी दायरे में सबसे ज्यादा नफरत की जाने वाली शख्सियत में शामिल हैं। प्रेस कॉन्फ्रेंस में वे बाकी लोगों के साथ बैठी दिखाई दीं, लेकिन अन्य लोगों की बातों पर ही ध्यान दिया गया।

इसके मुकाबले उर्दू भाषा के ‘सैरबीन’ कार्यक्रम में प्रेस कॉन्फ्रेंस में केवल कविता कृष्णन की बातों पर सबसे ज्यादा ध्यान दिया गया। वे कहती सुनाई दीं, “हमने कश्मीर में 100 लोगों को हिरासत में लिए जाने की बात सुनी थी। लेकिन श्रीनगर पहुंचने के बाद हमें महसूस हुआ कि यह आंकड़ा 600 से कतई कम नहीं है। प्रभावशाली लोगों को श्रीनगर में अलग-अलग जगहों पर रखा गया है। लेकिन बाकी लोगों के बारे में हमारे पास कोई जानकारी नहीं है कि उन्हें कहां रखा गया है…शायद पुलिस थानों में या किसी घर में। अगर आप गांवों में जाएं तो आपको पता चलेगा कि अनगिनत युवाओं को उठाया गया है। कोई नहीं जानता कि उन्हें कहां ले जाया गया है।”

6 अगस्त 2019 या उस दिन जब लोक सभा में जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को समाप्त करने के विधेयक पर चर्चा हो रही थी, जिसे राज्य सभा ने एक दिन पहले ही पारित कर दिया था, सैरबीन ने दिल्ली के अधिवक्ता और मोदी सरकार के आलोचकों में शामिल प्रशांत भूषण का एक साक्षात्कार प्रसारित किया। उन्होंने अनुच्छेद-370 को खत्म करने के फैसले को ‘असंवैधानिक’ करार दिया। उन्होंने यह भी कहा कि जम्मू-कश्मीर की विधानसभा, जो अभी निलंबित है, की सहमति के बगैर ना तो संसद और ना ही भारत के राष्ट्रपति के पास राज्य का बंटवारा करने और उसे केंद्र शासित प्रदेश घोषित करने का अधिकार है। उन्होंने कहा कि इस कदम को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। लेकिन हिंदी भाषा के ‘दुनिया’ कार्यक्रम में ना तो इस साक्षात्कार को और ना ही दूसरे किसी कानून विशेषज्ञ का कोई साक्षात्कार चलाया गया।

15 अगस्त 2019 को, जब भारत ने अपना स्वतंत्रता दिवस मनाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से भाषण दिया, ‘सैरबीन’ कार्यक्रम में दो भारतीय वक्ताओं को शामिल किया गया। उनसे एंकर ने पीएम के भाषण में कश्मीर वाले हिस्से पर सवाल किए। पीएम मोदी ने अपने भाषण में दावा किया कि उन्होंने कश्मीर पर अपने चुनावी वादे को पूरा कर दिया है और यह फैसला कश्मीरियों के भले के लिए है। फिल्म निर्माता संजय काक और पत्रकार रेणु आगाल का कश्मीर मामले से निपटने के बारे में नजरिया आलोचनात्मक था। उन्होंने मीडिया को वहां से अलग किए जाने का विरोध किया और मुख्यधारा की मीडिया के एक बड़े हिस्से में फैले उग्र-राष्ट्रवाद की भी आलोचना की, जो कश्मीर पर सरकार की बात को आगे बढ़ा रहा है। दोनों लोग इस बात पर सहमत थे कि सरकार ने सूचनाओं के सभी स्रोत को पूरी तरह से नियंत्रित कर रखा है। उन्होंने अनुच्छेद-370 को हटाने से पहले कश्मीरियों से बात ना करने दुष्परिणामों पर भी चर्चा की।

इसी कार्यक्रम में लंदन में भारतीय उच्चायोग के बाहर प्रदर्शन का वीडियो भी प्रसारित किया गया। इस दिन दो भारतीय वक्ताओं को 22 मिनट के पूरे ‘सैरबीन’ कार्यक्रम में शामिल किया गया। वहीं, हिंदी भाषा के ‘दुनिया’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री के भाषण का कोई खास विश्लेषण नहीं किया गया। लंदन में हुए प्रदर्शन को भी दुनिया में जगह नहीं मिली। हालांकि, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के कार्यकाल का पहला साल पूरे होने की खबर 23 अगस्त के ‘दुनिया’ कार्यक्रम का हिस्सा रही। इन खबरों को देखते हुए यह फैसला करना मुश्किल था कि यह ब्रिटिश चैनल है या कोई भारतीय चैनल। इसी तरह उर्दू भाषा के कार्यक्रम में पाकिस्तानी पीएम की आलोचना करने वाली खबरें खोज पाना मुश्किल होता है।

कुल मिलाकर भारत विरोधी प्रदर्शनों को बीबीसी की उर्दू सेवा तो इमरान खान का आलोचनात्मक विश्लेषण हिंदी सेवा प्रसारित करती है। इसी तरह आतंकवाद से निपटने में पाकिस्तान की भूमिका को लेकर दुनिया भर के नेताओं या एजेंसियों की टिप्पणी को हिंदी कार्यक्रम अच्छी-खासी जगह मिलनी तय होती है। अगर निष्कर्ष के तौर पर कहें तो इस उपमहाद्वीप के मामले में बीबीसी ने औपनिवेशिक समय के ‘बांटो और राज करो’ की नीति को ही ‘बांटो और रिपोर्ट करो’ के रूप में नए सिरे से लागू कर रखा है।

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