1878 में अंग्रेजी के लोकप्रिय समाचार पत्र द हिन्दू का प्रकाशन एक रूपया बारह आने का कर्ज लेकर शुरू किया
गया था। साप्ताहिक के रूप में द हिन्दू आठ पेज में निकलता था और चार आने ( 25 पैसे) में बेचा जाता था।तब द
हिन्दू की मात्र अस्सी प्रतियां छापने की मांग बाजार से आई थी।1905 में दि हिन्दू की आठ सौ प्रतियां बिकती थी।
इसी वर्ष 75 हजार रूपये में कस्तूरी अयंगार ने द हिन्दू को खरीद लिया और वह द हिन्दू अखबार के बड़े मीडिया
संस्थान के रूप में सामने हैं।
अक्टूबर 1893 में रेत्तामलई श्रीनिवासन ने दलित दर्शन की परायण मासिक पत्रिका निकाली। चार पेज की इस
पत्रिका के छपने व विज्ञापन के मद में दस रूपये खर्च किए गए थे। इसकी चार सौ कापियां दो दिनों में ही बिक
गई।उस समय केवल मद्रास नगरपालिका क्षेत्र में 112 उम्मीदवार ऐसे थे जो द्विभाषी पद के योग्य पाए गए
थे।इससे दलित समाज में पढ़े लिखे और नौकरी पेशा की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।परायण 1900
तक ही नियमित निकला। इसे बंद कर देना पड़ा।
आखिर द हिन्दू को खरीदने और चलाने वाले लोग मिल जाते हैं लेकिन रत्तामलई की पत्रिका के लिए कोई ग्राहक व
संचालक क्यों नहीं मिल सका?
समाचार पत्रों के आर्थिक पहलूओं पर शोध करने वाले अशोक वी देसाई ने लिखा है कि शुरूआती दिनों के समाचार
पत्रों की सफलता का कारण यह था कि उन सभी ने एक निश्चित और एक खास क्षेत्र के उच्च वर्गों पर अपने को
केन्द्रित कर रखा था और यह स्थिति दूसरे विश्वयुद्ध के समय तक बनी रही।
स्पष्ट है कि मीडिया संस्थान केवल एक मालिक की पूंजी से विकसित नहीं होता है उसे एक ढांचा विकसित करता
है जिसमें वर्चस्ववादी समूहों के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सांस्कृतिक हित जुड़े होते हैं।
पाठक,दर्शक,श्रोता, विज्ञापनों, सरकारी नीतियों आदि को एक साथ रखकर देखने की जरूरत है कि कैसे वे एक
वैचारिक ढांचे के रूप में अपने राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सांस्कृतिक हितों के लिए आपस में संवाद करते हैं
और अपने वर्चस्व को बनाए रखने व वर्चस्व पर आने वाले किसी भी किस्म के प्रभाव को तुरंत निष्क्रिय करते है
और अपने वर्चस्व का लगातार विस्तार करते हैं।
(अगली किस्त में आज के कुछ और बड़े कारोबारी समाचार पत्रों की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक पृष्ठभूमि के
बारे में जानकारी देने की कोशिश होगी। )
मीडिया कुछ लोगों का होता है और कुछ से ज्यादा बड़े समूह के लिए होता है।
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