गौरी लंकेश पत्रकार ही थीं, लेकिन इसे दबाना ठीक नहीं कि वह एक्टिविस्ट भी थीं। माने असल पत्रकार।
वास्तव में, पत्रकारिता की यही विरासत है, जिसमें पत्रकारिता के भीतर एक्टिविज्म सांस की तरह चलता
रहता है। पत्रकारिता के ‘क्रीमिलेयरों’ ने जानबूझकर एक्टिविज्म का विशेषण अलग से तैयार किया ताकि
पत्रकारिता की इस विरासत पर अपना हक जाहिर कर सकें। साथ ही ‘क्रीमीलेयर पत्रकारिता’ में
प्रोफेशनलिज्म जैसा एक और विशेषण भी आया। ये विशेषण एक दूसरे के बरक्स खड़े किए गए, लेकिन
सच यह है कि वही पत्रकार मारा जाता है, जो कि कार्यकर्ता होता है। हरियाणा के एक कस्बे में छत्रपति
रामचंद्र भी इसीलिए मारे गए। इतिहास ऐसे ही असल पत्रकारों की शहादतों से भरा पड़ा है। प्रोफेशनलिज्म
के अर्थों में उन्हें वैसा ही छोटा माना जाता है जैसे वर्ण व्यवस्था की भाषा में श्रमिकों को नीची जाति का
माना जाता है।
विशेषण संवेदनशीलता की मांग करते हैं ताकि शहादत की विरासत के वास्तविक हकदार संदेश ग्रहण कर
सकें। इस हत्या के जो संदेश हैं उसकी परतें अक्सर वे खोलने की कोशिश करते हैं जो बमुश्किल ऐसे
मौके पर अपनी दफ्तरी व्यस्तताओं से समय निकाल पाते हैं। वे ही अक्सर ऐसी हत्याओं से मिलने वाले
संदेशों का बखान करने के लिए हमारे संचार माध्यम होते हैं। स्थापित संस्थाएं ऐसी शहादत की विरासत
का हकदार होने का आभास कराने की कोशिश करती हैं। दूसरा बड़ा सच है कि इस वास्तविक शहादत के
बरक्स वर्चुअल दुनिया में तैरने वाले लोगों को भी नाखून कटाकर शहीद होने का मौका देने की आपार
क्षमता इस नई तकनीक में मिल गई है।
एक पत्रकार एक्टिविस्ट की हत्या का क्या संदेश है, इसे इस तरह से समझें कि द्रोणाचार्य ने एक
एकलव्य का अंगूठा काटा था। उस घटना को तमाम उन लोगों को संदेश देने के लिए अंजाम दिया गया
था जो कि खुद के भीतर एकलव्य होने की ताकत महसूस कर रहे थे। एकलव्य द्रोणाचार्य के लिए एक
संदेश भेजने का जरिया था। एकलव्य को अलग से दलित नहीं कहा जाता है, क्योंकि वह एकलव्य में ही
गुथा हुआ है। वह आदिवासी/दलित नहीं होता तो वह एकलव्य भी नहीं होता। द्रोणाचार्य और एकलव्य का
मिथक रचने का स्रोत क्या था? उस स्रोत ने मिथक के रचनाकार को कब सक्रिय किया या रचनाकार
किन स्थितियों में उस मिथक को रचने के लिए सक्रिय हुआ? इसकी पड़ताल जरूरी है। गैर बराबरी पर
टिके भारतीय समाज में बराबरी की बात के लिए असंख्य बैठकें और जुटान हुए हैं और उन सबमें
द्रोणाचार्य और एकलव्य के मिथक को दोहराया जाता है। गणेश शंकर विद्यार्थी से लेकर गौरी लंकेश तक
भी वैसा ही दोहराव दिखता रहा है।
गौरी लंकेश की हत्या की जांच अपराधों की तमाम जांच प्रक्रियाओं से गुजर सकती है, लेकिन हत्या के
लिए जब हत्यारों को संदेश दिया जाता रहा तो उस संदेश के स्रोत के जांच की प्रक्रिया क्या होगी और
इसे कौन करेगा? इस हत्या की जांच का रास्ता जब आभासी दुनिया की तरफ जाता है तो वहां केवल एक
निखिल दधीची ही मिलेगा। गौरी लंकेश की हत्या की जांच को जिस तरह की भाषा में संबोधित किया जा
रहा है, उस भाषा से ही उसे सुनने वालों की दुनिया को समझा जा सकता है। मैंने पूछा- ये दधीची कौन
है? दधीची को नहीं जानने वाला मैं गौरी लंकेश की हत्या की वजहों में मनुस्मृति की खोज से झटके से
कट गया और निखिल दधीची को ढूंढने लगा।
गौरी लंकेश मेरी पत्रकार है। मैं उससे कैसे अलग किया जा सकता हूं। मेरी पत्रकार से मुझे काटना ही
प्रोफेशनलिज्म है। मेरी पत्रकार वास्तव में मारी गई और उन जैसे मारे जाते रहे हैं। वह कार्यकर्ता है, असल
पत्रकार। इस सच की हत्या में तुम शामिल न होने का ऐलान भर करो। हम एक के बाद एक के मारे
जाने के लिए नहीं जुटना चाहते हैं, हम एक के बाद एक गौरी बनने के लिए मिलते रहना चाहते हैं। तब
तक जब तुम भी बोल सको – मेरी है गौरी लंकेश।