1943 में इंडियन फेडरेशन ऑफ लेबर के कार्यकर्ताओं के बीच डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा “लोकतंत्र समानता का दूसरा नाम है। संसदीय लोकतंत्र ने स्वतंत्रता की चाह का विकास किया लेकिन समानता के प्रति इसने नकारात्मक रुख अपनाया। यह समानता के महत्व को अनुभव करने में असफल रहा और इसने स्वतंत्रता तथा समानता के बीच संतुलन बनाने के लिए प्रयास नहीं किया।” लोकतंत्र और समानता के एक दूसरे के पर्याय के रूप में परिभाषित होने तक दो विश्व युद्ध हुए। और यह एक विश्वव्यापी वैचारिक व्यवस्था के रूप में निर्मित हुई। उसी के अनुरूप पूरी दुनिया का तानाबाना तैयार हुआ। इसमें सच के नये मानक भी तैयार हुए। तीसरा विश्व युद्ध शीतयुद्ध के रूप में निरंतर चला और इसे पूंजीवाद बनाम समाजवाद के संघर्ष के रूप में महसूस किया गया। आखिरकार पूंजीवाद के नेतृत्व में एक नई विश्व व्यवस्था बनाने की घोषणा हुई जिसका लोकप्रिय नाम भूमंडलीकरण है जिसे उत्तर आधुनिक युग में प्रवेश बताया गया। विचारों की विदाई और इतिहास के अंत की घोषणाएं हुई।
नई विश्व व्यवस्था का मतलब उठने-बैठने और संवाद के ढांचे में अमूल बदलाव की घोषणा भी है। संवाद के ढांचे में बुनियादी बदलाव सच के मानकों को पीछे छोड़ना है। नई विश्वव्यापी व्यवस्था का अर्थ इसके सच को निर्मित करना और उसे स्वीकार्य बनाने की संचार व्यवस्था खड़ी करना रहा है। पत्रकारिता की दुनिया में पोस्ट ट्रूथ (post-truth) का विमर्श कोई नई परिघटना नहीं है। वह उत्तर आधुनिकता का ही एक पहलू है और उसे हर क्षेत्र में उभरे इस तरह के नये विमर्शो के हिस्से के रूप में ही देखना चाहिए।
पोस्ट ट्रूथ के विमर्श की तात्कालिक पृष्ठभूमि अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव के हालात से जुड़ी है। लेकिन दुनिया पोस्ट ट्रूथ के हालात से वर्षों से गुजर रही है। इराक पर हमले के लिए एक सच गढ़ा गया। इसी तरह दुनिया के ताने-बाने को तहस नहस करने वाली तंमाम घटनाओं पर नजर डालें तो दिखता है कि ताकतवरों ने अपनी एक प्रतिक्रिया तैयार की और उसे सच मान लेने को बाध्य किया। जब अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर जार्ज बुश ने कहा कि जो हमारे साथ नहीं है वह आतंकवादियों के साथ है तो सत्ताओं द्वारा मानवीय समाज में सच के मानकों को बदलने की घोषणा थी। सच की ताकत पर भरोसा करने वाली मानवीय दुनिया में ताकत के सच को स्थापित करने की निरंतर कोशिश ही पोस्ट ट्रूथ है। लोकतंत्र और समानता पर आधारित सच के मानकों में बुनियादी बदलाव ही पोस्ट ट्रूथ है।
इस विमर्श को पत्रकारिता और सोशल मीडिया में बांटकर प्रस्तुत करने की कोशिश उस हालात से निजात पाने की कोशिश है जो पूंजीवादी पत्रकारिता को अपने संकटों की चरम अवस्था में पहुंचा चुकी है। दुनिया भर में पत्रकारिता के दो वर्ग पहले से हैं। इसे मुख्यधारा बनाम वैकल्पिक पत्रकारिता के रूप में देखा जाता है। वास्तविकता हैं कि मुख्यधारा की पत्रकारिता सत्ताओं की पत्रकारिता के रूप में एक भयावह चेहरे के रूप में सामने आई है। जो सत्ता के साथ नहीं हुई वह पत्रकारिता सत्ता विरोधी खेमे की तरफ खड़ी कर दी गई। पत्रकारिता में मुख्यधारा की स्थापना पूंजीवाद द्वारा पत्रकारिता को लोकतंत्र और समानता के पूरक होने की वैचारिकी से दूर ले जाने का शीतयुद्ध रहा है।
सोशल मीडिया में जो विचारधारा सक्रिय दिख रही है वह मुख्यधारा की पत्रकारिता में सक्रिय रही है। सोशल मीडिया वास्तव में समूहों के लिए संचार की तकनीकी सुविधा है। इस तकनीक के इस्तेमाल में भी वह समूह ताकतवर साबित हो रहा है जो पूर्व से ही विभिन्न स्तरों पर ताकतवर है। इस तकनीक को प्रचारित करने में जो सोशल शब्द जुड़ा है वह समूह को सोशल के रूप में स्थापित करने में मदद करता है।
सच के उत्तर चेहरे की पड़ताल करते है तो संवाद परोसने की पूरी पद्धति और प्रक्रिया में बुनियादी रूप से एक बदलाव महसूस करते हैं। प्रकिया रही है कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों के मंथन से एक अनुभव व अनुभूति विकसित होती है जिसे तथ्य फिर सच के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। यह नये विमर्शों का आधार बनता है। लेकिन सच के नये चेहरे का सच इस तरह दिखता है। झूठ सीधे पेश नहीं किया जाता है क्योंकि झूठ का कोई तथ्य नहीं होता है। बल्कि जो प्रतिक्रिया देनी है उस प्रतिक्रिया में झूठ को तथ्य दिखने का भ्रम पैदा किया जाता है। मसलन नरेन्द्र मोदी ने खुद नहीं कहा कि संसदीय लोकतंत्र की विपक्षी पार्टियों ने भारत बंद का आह्वान किया है। बल्कि वे भारत बंद पर अपनी प्रतिक्रिया देते दिखते हैं और उन्हें यह बताने की जरूरत नहीं है कि उन्हें भारत बंद की सूचना कैसे मिली। भारत बंद के उदाहरण में सबसे मजेदार पहलू यह दिखता है कि प्रतिक्रिया दर प्रतिक्रिया की एक सीढ़ी तैयार होती जाती है। इसमें वे स्थापित संस्थाओं मसलन राजनीतिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक संगठनों व सरकार के पदों पर बैठे लोगों की प्रतिक्रियाओं से झूठ की ताकत सच के रूप में प्रकट होती जाती है। प्रतिक्रियावादी संचार का ढांचा इसी तरह विस्तार पाता है।
इस दौर में सत्ताओं द्वारा सच को निर्वासित करने और स्थापित सच पर हमले की घटनाएं बढ़ी है जिसकी पहचान हम स्नोडेन जैसों के निर्वासन से लेकर दूसरे पत्रकारों-लेखकों पर हमले के रूप में देख सकते हैं। सच पर हमले की सभी घटनाओं को एक ही साथ रखकर देखा जाना चाहिए। हमले तकनीक के जरिये शब्दो व तस्वीरों के रूप में हो या फिर सत्ताओं के दमनात्मक हथियारों से हमले के रूप में हो।
(जनमीडिया के जनवरी 2017 अंक में प्रकाशित संपादकीय)